true love is only you | सच्चा प्यार सिर्फ तुम हो: दीपिका जानती है कि उसका पति नेहा से प्यार करता है, वह उन दोनों को मिलाना चाहती है

39 मिनट पहले

  • कॉपी लिंक

“सुनो, एक कहानी लिखी है छोटी सी। क्या सुनोगी तुम?’’ उस रात मैंने दीपिका से आग्रह किया। मेरी आशा के विपरीत वो बिना किसी ना नुकर के मेरे पास आ कर बैठ गई, “हां, सुनाओ न। मुझे पता है, तुम अच्छा लिखते हो। बस मुझे ही कहानी की समझ नहीं है।’’ वो मुस्करा दी। उस समय वो मुझे बहुत ही प्यारी लगी।

“जानती हो दीपिका, आज मुझे नेहा की याद आ गई। उससे अलग हुए भी तीन बरस बीत गए,’’ कहानी भूल कर मैं नेहा को याद करने लगा।

“क्या तुम उससे प्रेम करते थे?’’ दीपिका पूछ बैठी। मैंने चौंक कर उसे देखा। उसके स्वर में, आंखों और चेहरे पर कहीं भी ईर्ष्या की झलक नहीं थी।

“शायद हां… शायद नहीं…’’ मैं कुछ कह नहीं सका।

दीपिका सुंदर तो नहीं है, लेकिन कुरूप भी नहीं है। भली, आत्मविश्वासी, समझदार और दिमागवाली।

“मुझे कुछ बताओ उसके बारे में। आज पहली बार तुम्हारे मुंह से ये नाम सुन रही हूं।’’ उसने आग्रह किया।

“हूं…’’ मैं कुछ पल रुका, फिर कहने लगा, “वो नेहा थी…नेहा विलियम। उसको लावण्य का वरदान मिला था। उसकी आंखें तरल और हल्की भूरी थीं। उन दिनों मैं कविता लिखा करता था। उसकी आंखों पर भी कविता लिखना चाहता था, लेकिन कभी लिख नहीं सका।

उन दिनों मैं एमए फाइनल का स्टूडेंट था और नेहा बीए सेकेंड ईयर की। हम दोनों रेडियो स्टेशन पर मिले थे,” कहते कहते मैं यादों में खो गया।

कुछ देर रुकने के बाद फिर से कहना शुरू किया, “हर बार की तरह उस दिन भी रिकॉर्डिंग रूम खाली नहीं था इसलिए हमें इंतजार करना पड़ा। हम दोनों साथ ही बैठे थे। मेरी तरह उसके पास भी गीत थे, कविताएं थीं, गजलें थीं, लेकिन मेरे पास इन सभी के अलावा बहुत सी कहानियां भी थीं। कुछ अखबार और पत्रिकाओं में छपी हुई और कुछ लौटी हुई। एक सी रुचियां थीं हमारी।

इसके बाद हम लगातार मिलने लगे,” कहते कहते मैंने दीपिका को देखा। उसकी आंखों में उत्सुकता थी।

“फिर..?”

मैंने उसकी उत्सुकता भांप ली थी, “नहीं, नहीं, हम हमेशा रेडियो स्टेशन पर नहीं मिलते थे। वहां से थोड़ी ही दूर पर एक पार्क था। उधर बच्चे, बुज़ुर्ग, जवान सभी आया करते थे। वहीं एक बेंच पर हम काफी देर तक बैठते। देखने वाले हमें प्रेमी युगल समझते जबकि हम दोनों एक दूसरे को सिर्फ और सिर्फ अपनी रचनाएं सुनाया करते।

इस तरह हम लोग हर शनिवार मिलते। नेहा का घर रेडियो स्टेशन से लगभग पांच किलोमीटर दूर था और वो स्कूटी से आती जबकि मैं पिताजी की पुरानी साईकिल से। मेरा घर करीब बारह किलोमीटर दूर था उधर से। मेरे पिता नहीं थे, मां ने संघर्षों से मुझे बड़ा किया था।

बारहवीं के बाद मैंने पढ़ाई के साथ ट्यूशन करके, रेडियो प्रोग्राम करते हुए, पत्र पत्रिकाओं में लिख कर घर में आर्थिक सहयोग देना शुरू कर दिया था।

नेहा के पिता पैसे वाले थे। शायद उनका कोई बिजनेस था। ईसाई पिता और बंगाली मां की संतान थी नेहा। पिता की नफासत और मां का लावण्य उसके संपूर्ण व्यक्तित्व में था।

हम लगातार तीन सालों तक मिलते रहे। रेडियो स्टेशन के पास उसी बाग में, उसी बेंच पर बैठते रहे, लेकिन कभी भी एक दूसरे का स्पर्श तक नहीं किया। कैसी अजीब बात थी ये। नेहा का साथ होता तो मुझे सब कुछ मनभावन, प्यारा लगता। बादल, रास्ते, हवायें, फूल, आसमान में उड़ते पंछी… सभी कुछ।

हर हफ्ते एक पूरी शाम उसके साथ बीतती। उस बाग में एक ताल भी था जिसके प्रकाश में हम दोनों सूर्यास्त की झलक साथ में देखते। सूर्य डूब जाता और आकाश में चांद निकल आता। वो गा उठती, ‘जेते जेते पथे पूर्णिमा राते चांद उठेछिलो गगने (जाते जाते रास्ते में पूर्णिमा का चांद आकाश में निकल आया था)’। लेकिन तब भी मैं जानता था कि मेरे और उसके सामाजिक स्तर में बहुत अंतर है।

फिर एक शाम वो जब आई तो उदास थी, कुछ थकी हुई, मुरझाई सी। मुझे देख कर मुस्कराई, लेकिन उसकी आंखें उदास ही रहीं। उस शाम उसने कोई कविता भी नहीं सुनाई। बस चुप बैठी रही। सूर्य की किरणों का ताल पर उतरना देखती रही।

धीरे धीरे उसने मुझसे मिलना कम कर दिया। और कुछ दिन बाद एकदम ही बंद कर दिया। यहां तक कि उसका फोन भी स्विच ऑफ रहता।

कुछ दिन मुझे काफी बेचैनी रही, लेकिन जल्द ही एक दूसरे शहर में मेरी नौकरी लग गई और मैंने तुमसे शादी कर ली। तुम मां को पसंद थीं और मुझे भी।’’ मैंने प्यार से दीपिका का हाथ थाम लिया।

दीपिका मेरे अतीत की कहानी बड़े ध्यान से सुन रही थी। इतनी देर में उसने एक भी उबासी नहीं ली। नेहा को याद करते हुए मेरी आंखों से न जाने कब से लगातार आंसू बहते जा रहे थे।

दीपिका ने मेरे आंसू पोंछ दिए और बोली, “अपने शहर चलें क्या जहां तुम नेहा से मिला करते थे? फिर से वो पार्क, वो बाग देखें जहां तुम नेहा से मिलते थे। नेहा से भी मिलें एक बार फिर? क्या नेहा से मिलने को जी नहीं चाहता तुम्हारा?’’ दीपिका के स्वर में बहुत सारा प्यार था, दुलार था।

सच, बीते हुए समय में मैंने कभी भी नेहा से मिलने का सोचा तक नहीं था। अपने शहर जा कर भी नहीं। आज दीपिका के कहने पर मन जैसे ‘नेहा नेहा’ पुकार उठा।

अगले दिन हम लोग अपने छूटे हुए शहर के स्टेशन पर थे। इसे संयोग ही कह सकते हैं कि मुझे कुंदन दिख गया उधर। शायद किसी को स्टेशन छोड़ने आया था। अपनी वेगनार से टिका डायरी में कुछ नोट कर रहा था। उसी ने पुकारा मुझे।

मेरा मित्र कुंदन जो नेहा को जानता था। दुनिया इतनी बड़ी तो नहीं थी कि मैं और कुंदन तीन सालों के बाद मिलें? मुझे अपने आत्मकेन्द्रित स्वभाव पर शर्म आई। कैसे मैं नेहा के साथ साथ कुंदन को भी भूला रहा। सच, मेरी शादी के बाद से लेकर बस आज ही कुंदन मिला था मुझसे। एकाएक ही हम कस कर एक दूसरे के गले से लिपट गए। हमारी आंखें भीग गई थीं।

“कैसा है कुंदन? शादी वादी करी अभी कि नहीं?’’ मैंने पूछा।

“नहीं, कोई मिली ही नहीं मुझे नेहा जैसी तो कैसे करता शादी?’’

“नेहा…” मैं चौंक पड़ा, “नेहा विलियम?’’

“हां!” कुंदन उदास था, “नेहा सिर्फ तुमसे प्यार करती थी। वो तुम्हारे साथ ही जीवन बिताना चाहती थी इसीलिए…”

“लेकिन उसने तो मुझसे कभी ऐसा कुछ कहा ही नहीं। उसने तो बाद में मुझसे मिलना भी बंद कर दिया था।’’

“तुम्हें शायद पता भी नहीं होगा कि उसे दिल की बीमारी थी। काफी इलाज और सर्जरीज के बाद भी कुछ सकारात्मक परिणाम नहीं निकला। हर बीतता दिन उसे मृत्यु के निकट ले जा रहा था। इसीलिए उसने स्वयं को तुमसे दूर कर लिया था। तुम्हारी शादी हो रही है यह सुन कर वो बहुत खुश थी।’’

हम गाड़ी में बैठ चुके थे। नेहा को गिफ्ट देने के लिए दीपिका एक सुंदर सी साड़ी लेकर आई थी।

“पहले मेरे घर चल कर फ्रेश हो लो उसके बाद नेहा से मिलने चलते हैं।’’ कुंदन ने प्रस्ताव रखा।

मुझसे पहले दीपिका ही कह उठी, “नहीं, हमें पहले नेहा से ही मिलना है। फिर तुम्हारे घर चलेंगे।’’

कुंदन ने जिस जगह गाड़ी रोकी वो शहर से बाहर एक कब्रिस्तान था। लोहे का बड़ा सा गेट कुंदन ने स्वयं ही खोला। मेरा चेहरा सफेद पड़ चुका था। कुंदन ने एक कब्र की तरफ इशारा किया, “देखो, यहां नेहा सो रही है। मेरी नेहा, तुम्हारी नेहा, जिसने तुमसे प्यार किया था, जिससे मैंने प्यार किया था।

उसे दुनिया से गए हुए एक साल बीत गया। उसे पता था कि वो अधिक दिन तक जीवित नहीं रहेगी। इसीलिए अपने बिछोह का दुख वो तुम्हें नहीं देना चाहती थी। इसीलिए वो तुमसे दूर चली गई… और अब हम सबसे बहुत दूर…” कुंदन रो रहा था। निःशब्द सन्नाटे में उसका रुदन गूंज रहा था।

दीपिका ने अपने बैग से लाल साड़ी निकाली। साड़ी के साथ सिंदूर की एक डिब्बी थी, बिंदी थी, और थीं लाल रंग की चूड़ियां। दीपिका ने नेहा को वो लाल साड़ी पहना दी, थोड़ा सिंदूर उस पर छिड़का। बिंदी का पैकेट और चूड़ियां उस पर रख कर अपना माथा नेहा की कब्र पर टिका दिया। उसकी सिसकियां मुझे सुनाई पड़ रही थीं।

कुछ देर बाद हम तीनों उसी पार्क, उसी बाग में गए जहां मैं और नेहा मिला करते थे। शाम होती जा रही थी, लेकिन अभी पूरी तरह नहीं हुई थी।

वही पार्क, वही ताल, वही बेंच और वही सूर्यास्त का समय। सिर्फ मैं अकेला उस बेंच पर पर बैठ गया। हवा में जैसे चंदन महका हो। ऐसा लगा जैसे नेहा बगल में आ कर बैठ गई है। फिजाओं में एक गीत गूंज गया- ‘जेते जेते पथे पूर्णिमा राते चांद उठे छिलो गगने।’

हां, उस दिन पूर्णमासी थी।

– आभा श्रीवास्तव

E-इश्क के लिए अपनी कहानी इस आईडी पर भेजें: db।women@dbcorp।in

सब्जेक्ट लाइन में E-इश्क लिखना न भूलें

कृपया अप्रकाशित रचनाएं ही भेजें

खबरें और भी हैं…

#true #love #सचच #पयर #सरफ #तम #ह #दपक #जनत #ह #क #उसक #पत #नह #स #पयर #करत #ह #वह #उन #दन #क #मलन #चहत #ह