Troubled by the teasing, the girl left her job | छींटाकशी से परेशान लड़की ने नौकरी छोड़ी: छेड़छाड़, गंदे-भद्दे कमेंट्स से महिलाएं परेशान, बच्चियों का छूटता स्कूल; पुरुषों के लिहाज से बने शहर

नई दिल्ली3 दिन पहलेलेखक: संजय सिन्हा

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बुलंदशहर के खुर्जा की रहने वाली सोनिया (बदला हुआ नाम) ग्रेटर नोएडा के किसी कंपनी में काम करती थीं। वह खुर्जा से ट्रेन पकड़ दादरी आती, फिर वहां से ऑटो से कंपनी पहुंचती।

इस दौरान कुछ बदमाश परेशान करने लगे। वो जहां जाती, बदमाश आ धमकते। ट्रेन की बोगी में घुस आते, ऑटो में जबरन बैठ जाते। शरीर में जहां-तहां हाथ लगाते।

3 तीन महीने तक सोनिया यह सब बर्दाश्त करती रहीं। उनसे पीछा छुड़ाने के लिए सोनिया ने नौकरी छोड़ दी। गाजियाबाद में रियल एस्टेट कंपनी जॉइन की, लेकिन बदमाश यहां भी आ धमके।

वो चार बदमाश थे, इसलिए डर कर कुछ बोल नहीं पाती। बदमाश रेप करने की धमकी देते। तब सोनिया ने साहस बटोरते हुए एफआईआर दर्ज कराई।

सोनिया के पिता पैरालिसिस के शिकार हैं और परिवार चलाने के लिए वह नौकरी कर रही है।

सोनिया जैसी हजारों लड़कियां हैं जो अपने सपने को पूरा नहीं कर पातीं या बीच में ही नौकरी या पढ़ाई छोड़ देती हैं। इसकी वजह है पब्लिक वॉयलेंस।

बस या ट्रेन में शरीर छूना, छेड़खानी, आंखों से इशारे करना, भद्दे कमेंट करना, पीछा करना, विरोध करने पर अंजाम भुगतने की धमकी जैसी हरकतें पब्लिक वॉयलेंस हैं।

चमचमाते गुरुग्राम और बेंगलुरु में खतरे में महिलाओं की सुरक्षा

ऊंची-ऊंची बिल्डिंग, जिसके रंगीन शीशे चमकते हुए गुरुग्राम की कहानी कहते हैं। लेकिन इस अल्ट्रा हाई टेक सिटी में महिलाएं सुरक्षित नहीं। गुरुग्राम और दिल्ली को लेकर कैंब्रिज यूनिवर्सिटी ने एक स्टडी की जिसका नाम है GendV प्रोजेक्ट।

प्रोजेक्ट की रिसर्चर डॉ. नंदिनी गुप्टू बताती हैं कि बड़े-बड़े मेट्रो सिटीज जहां आधुनिकीकरण की गिरफ्त में आएं वहीं ये शहर महिलाओं के लिए असुरक्षित बने हैं। हर मेट्रो सिटीज में वर्किंग वुमन को छोटी छोटी बातों का ख्याल रखना पड़ता है। कपड़े कैसे पहनकर ऑफिस जाया जाए, किस रास्ते से जाना है, कौन सी सवारी सेफ है। ये सारी बातें हर कामकाजी महिला की ‘टू डू लिस्ट’ में होती है।कई जगहों पर सड़कों और बस स्टैंड पर अंधेरा होता है। बदमाश इसका फायदा उठाते हैं। ऑटो रिक्शा वाले भी बदतमीजी करते हैं। ऐसी जगहों पर पुलिस की गश्ती भी कम होती है।

सिलिकॉन सिटी बेंगलुरु में B-Safe नाम से एक सर्वे रिपोर्ट तैयार की गई। इसमें बेंगलुरु के दशहरल्ली और हेब्बल इलाके के 298 पब्लिक प्लेस और 29 सड़कों को शामिल किया गया। रिपोर्ट में बताया गया कि 54% स्ट्रीट लाइटें खराब हैं। इन इलाकों में महिलाओं के प्रति अपराध का यह बड़ा कारण था।

मर्दों के हिसाब से शहरों की बसावट, महिला सेफ्टी की अनदेखी

पंजाब यूनिवर्सिटी में जेंडर स्टडीज की एसोसिएट प्रोफेसर शहर मर्दों के हिसाब से डिजाइन किए गए हैं। मोहल्ले, गलियां, सड़कें, पार्क, पब्लिक टॉयलेट, मंडी सब कुछ पुरुषों के अनुसार है।

आप किसी पार्क में चले जाएं या किसी खेल के मैदान में, लड़कियां वहां खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करतीं। पार्क में लोग ताश खेलते मिल जाएंगे। खेल के मैदान में 4 लड़कियां खेलने पहुंचें तो 20 लड़के कमेंट्स करने आ जाएंगे।

सुलताना बताती हैं कि दिल्ली के दरियागंज में एक पर्दाबाग यानी जनाना बाग है। इस बाग में केवल महिलाएं ही आती-जाती हैं। लेकिन ऐसे पार्क कहीं देखने-सुनने को भी नहीं मिलते।

पब्लिक टॉयलेट भी मर्दों के लिए सोच कर बनाए जाते

किसी पब्लिक टॉयलेट में जाएं तो वहां एवरज मेल यूरिनेटर 15-20 होते हैं लेकिन महिलाओं के लिए 1 या 2 डोर होता है।

एक बार में 15-20 पुरुष इसका इस्तेमाल कर लते हैं। लेकिन कम स्पेस होने की वजह से महिलाएं इसका इस्तेमाल नहीं कर सकतीं।

डॉ. नंदिनी बताती हैं कि पब्लिक टॉयलेट भी मर्दों को ध्यान में रख बनाया जाता है।

यह जेंडर आधारित भेदभाव है। महिलाएं कम आती हैं इस सोच के कारण पब्लिक टॉयलेट में उन्हें स्पेस कम दिया जाता है।

इसलिए कामकाजी महिला हो या सामान्य गृहिणी घर से निकलते वक्त इस बात का ध्यान रखती है कि कम पानी पीना है ताकि टॉयलेट न लगे। कई महिलाएं यूरिन की इच्छा को भी दबाती हैं और इस कारण उन्हें गंभीर बीमारियों का सामना करना पड़ता है।

पब्लिक प्लेस में बच्चे को दूध पिलाने की कोई जगह नहीं

किसी पब्लिक प्लेस या ऑफिस में बच्चे को दूध पिलाने के लिए कोई जगह नहीं होती। जबकि ऑफिसों के अंदर फीडिंग स्पेस बनाने के नियम हैं, लेकिन इसे कोई नहीं मानता।

ब्रेस्टफीडिंग पर एक ऑनलाइन सर्व कराया गया जिसमें बताया गया कि केवल 6% महिलाएं ही अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिए सही जगह तलाश पाईं। 900 माओं ने इसमें भाग लिया जिनमें से 77% की उम्र 25 से 35 वर्ष थी। उन्होंने बताया कि वो सही जगह नहीं मिलने से कार, पब्लिक ट्रांसपोर्ट, रेस्टोरेंट, कार पार्किंग, ट्रायल रूम, वॉशरूम, मंदिर, पार्क में बच्चे को दूध पिलाया।

कुछ महिलाओं ने तो बताया कि उन्होंने बस अड्‌डे, रेलवे प्लेटफॉर्म पर बच्चे को दूध पिलाया।

इनमें से 81% मांओं ने माना कि पब्लिक प्लेस में ब्रेस्ट फीडिंग कराने से वो खुद को असहज महसूस करती हैं। यहां न तो साफ-सफाई होती है और न ही प्राइवेसी होती है।

सुलताना कहती हैं कि ब्रेस्ट फीडिंग कराती महिला को सेक्शुअलिटी के नजर से देखते हैं।

असुरक्षा की वजह से महिलाएं ठीक से अपना योगदान नहीं दे पातीं

लड़कियों की स्कूली पढ़ाई का ड्रॉप आउट अधिक क्यों है? 2020-21 में 9वीं-10वीं में पढ़ाई छोड़ने वाली लड़कियों का ड्रॉप आउट रेट 13.7% रहा।

हैदराबाद यूनिवर्सिटी की जेंडर स्टडीज की प्रोफेसर के सुनीता बताती हैं कि घर और स्कूल के रास्ते में सेक्शुअल वॉयलेंस की वजह से लड़कियों की पढ़ाई छूट जाती है।

मां-बाप को पता चलता है कि लड़की को रास्ते में बदमाश छेड़ रहे हैं, दुपट्‌टा खींच रहे हैं तो लड़की की पढ़ाई बंद करवा दी जाती है। कई बार लोग मोहल्ला बदल लेते हैं, शहर छोड़ देते हैं।

किसी तरह लड़कियां पढ़-लिख कर नौकरी करने जाती हैं तो परेशानियां मुंह बाए खड़ी मिलती हैं। कई बार उन्हें अपने ही ऑफिस में सेक्शुअली हैरासमेंट का सामना करना पड़ता है।

मजबूरी में उन्हें घर बैठना पड़ता है। कुछ हिम्मत दिखाती हैं तो एक जगह छोड़ दूसरी जगह नौकरी करती हैं।

लेकिन इन सबका असर प्रोडक्टिविटी पर पड़ता है।

भारत में वर्कप्लेस हैरासमेंट कॉमन है। अधिकतर लड़कियां इस हैरासमेंट को चुपचाप बर्दाश्त कर लेती हैं।

जब वो इसे डील नहीं कर पाती तो नौकरी छोड़ देती हैं। ऐसा करने से कंपनी एक अच्छी एम्प्लॉय खो देती है। लेकिन कंपनी का वर्क कल्चर खराब हो जाता है। कई बार हैरासमेंट की वजह से महिला डिप्रेशन की शिकार हो जाती है।

बस में ड्राइवर, कंडक्टर भद्दे कमेंट करते

बस हो या कैब महिलाओं में असुरक्षा का भाव रहता है। बस में ड्राइवर, कंडक्टर के भद्दे कमेंट्स सुनने को मिलते हैं। बस में भीड़भाड़ होने पर कई पैसेंजर इस ताक में रहते हैं कि महिला को कैसे छुआ जाए।

जानबूझकर शरीर पर गिरना, अंगों को छुना बसों में कॉमन है।

दिल्ली में ‘ग्रीन पीस इंडिया’ ने 500 महिलाओं से बात कर एक स्टडी तैयार की। रिपोर्ट के अनुसार, 54% महिलाओं ने कहा कि बस में पुरुष यात्री से ही कमेंट्स सुनने को नहीं मिलते बल्कि ड्राइवर, कंडक्टर भी छेड़खानी करते हैं।

इस रिपोर्ट को तैयार करने वाली एक्टिविस्ट अवनि गोयल बताती हैं कि दिल्ली में महिलाओं के लिए फ्री बस स्कीम चलती है। इन बसों में ऐसी घटनाएं देखने को अधिक मिलती हैं।

महिलाओं की सुरक्षा को देखते हुए ही उत्तर प्रदेश सरकार ने गाइडलाइन जारी किया कि फैक्ट्रियों में शाम 7 बजे के बाद और सुबह 6 बजे के पहले महिलाओं को काम करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकेगा।

किसी महिला को नाइट शिफ्ट में बुलाने के लिए उसकी लिखित सहमति की जरूरत पड़ेगी। नाइट शिफ्ट में काम कराने के लिए घर से फैक्ट्री और फैक्ट्री से घर महिला को लाने-ले जाने की व्यवस्था करनी होगी।

देशभर में 500 वर्किंग वुमन हॉस्टल, आधे में भी महिलाएं नहीं

देशभर में 500 वर्किंग वुमन हॉस्टल हैं जिन्हें सरकार की ओर से खोल गया है। इसके लिए 2021-22 में लगभग 12 करोड़ रुपए दिए गए। इन 500 हॉस्टलों में 31,657 की क्षमता है लेकिन 15,007 महिलाएं ही रह रही हैं।

राजस्थान में 849 की क्षमता है लेकिन वहां महिलाएं 251 ही हैं। जयपुर में 112 की क्षमता है लेकिन वहां केवल 32 कामकाजी महिलाएं ही हैं। नागौर में 44 की कैपेसिटी है लेकिन एक भी महिला नहीं रह रही है।

सबसे अधिक वर्किंग वुमन होस्टल 114 केरल में हैं जिनमें 3,000 से अधिक वर्किंग वुमन रह रही थीं जो कि क्षमता से आधा भी नहीं है।

के सुनीता बताती हैं कि ये हॉस्टल वर्किंग वुमन के लिए बनाई गई हैं। लेकिन इनमें तरह की खामियां रहती हैं। न हो हाइजीन का ध्यान रखा जाता है और न ही सुरक्षा ही पुख्ता रहती है। इसलिए ज्यादातर वर्किंग वुमन हॉस्टल आधे भी नहीं भर पाते।

इनकी जगह पर महिलाएं पीजी में रहना पसंद करती हैं या फिर चार महिलाएं या लकड़ियां एक बड़ा घर किराये पर ले लेती हैं।

कार्यस्थलों पर सेक्शुअल हैरासमेंट रोकने के लिए कड़े कानून पर अमल में कोताही

भारत दुनिया के उन देशों में है जिसने कार्यस्थलों को सुरक्षित बनाने के लिए कानून बनाया जिसे POSH कानून यानी ‘द प्रिवेंशन ऑफ सेक्शुअल हैरासमेंट’

एट वर्कप्लेस।

लेकिन इस कानून में कई खामियां रहीं जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी टिप्पणी की। इसे देखते हुए इसे संशोधित किया गया है।

डॉ. अमीर सुलताना बताती हैं कि इस कानून को लेकर जागरूकता नहीं है। बड़ी कंपनियों में इसका पालन ज्यादा बेहतर है लेकिन सभी जगह नहीं।

वो कहती हैं कि लड़कों के कॉलेज में जाने पर कहा जाता है कि यहां तो कोई लड़की नहीं है तो इंटरनल कमेटी की जरूरत ही नहीं है।

लड़कियों के कॉलेज में जाएं तो कहा जाता है कि लड़के नहीं हैं तो इंटरनल कमेटी की जरूरत ही कहां पडे़गी।

जबकि दोनों ही तरह के कॉलेजों में टीचिंग स्टाफ, गेस्ट फैकल्टी, नॉन टीचिंग स्टाफ, कैंटीन स्टाफ, केयरटेकर, स्वीपर पुरुष या महिला हो सकते हैं।

इसी तरह कोई निगरानी तंत्र नहीं है। कई जगहों पर कमेटी के चेयरपर्सन पुरुष होते हैं जबकि हर हाल में महिला को ही चेयरपर्सन बनाना है।

ग्राफिक्स: सत्यम परिडा

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