4 दिन पहले
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आज खामोशी से एक दरख्त के नीचे पसरने का मन लिए बैठ गयी नंदिनी। चारों तरफ कुछ धूसर, कुछ स्याह और कुछ खुशनुमा पत्तों को देखकर मन के भीतर यादों का कारवां बिखरने लगा।
ये एड्स सेल के भीतर सड़ांध छोड़ रहे उस कंकाल मात्र शरीर को देखने का असर था या 25 वर्ष पहले नरेरा की दरगाह पर बैठे उस बूढ़े फकीर के शब्दों का असर?
न जाने किस रौ में आकर एक बार उन्होंने कहा था,“करम गति टारे नहीं टरी।”
कई किलोमीटर दूर से वो हफ्ते में एक या दो बार उनसे मिलने जरूर आती थी। फटी पुरानी गंदी चादर पर दरगाह के एक कोने में बैठे उस फकीर का व्यक्तित्व बेहद आकर्षक लगता था उसे, जैसे वो दरगाह का बेताज बादशाह हो। सिर पर मलमल की पगड़ी, आंखों पर मोटा चश्मा, सफेद दाढ़ी, पोपला सा मुंह, लेकिन बात बिल्कुल स्पष्ट और खरी।
चमत्कार प्रदर्शन से दूर वो सबके लिए दुआएं लुटाता। लोगों ने नंदिनी को बताया था कि लोगों को उसकी दुआएं लगती हैं। जब दुआ पूरी होती है तो खुश होकर लोग उनके कदमों में न जाने क्या क्या चढ़ा जाते हैं। हालांकि सीधे सीधे लोगों को देने के लिए उस फकीर के पास कुछ भी नहीं था, फिर भी उनके याचकों को वहां से कुछ न कुछ जरूर मिल जाता था। वो भिक्षा मांगने वाला नहीं, खुशियां बांटने वाला फकीर था।
चेहरे पर हल्की सी मुस्कान के साथ वो हमेशा नंदिनी से एक ही औपचारिक सा सवाल पूछते, “सब खैरियत तो है बेटी?”
“हां बाबा,” कहकर वो वहीं चटाई पर बैठ जाती। और वो बूढ़ा फकीर संतुष्ट भाव से अपना हाथ उसके सिर पर रखकर आशीर्वचनों की झड़ी लगा देता।
फिर धीरे धीरे फुसफुसाहट भरे शब्दों में उनका गुनगुनाना शुरू हो जाता-
“जिस घर में होता नहीं नारी का सम्मान
देवी पूजन व्यर्थ है, व्यर्थ वहां सब दान”
पीर बाबा के शब्दों का अर्थ नंदिनी समझ न पाती कि वो क्यों और क्या सोचकर ऐसा कहा करते थे। फिर भी उनके शब्द नंदिनी को अपने सागर में गले गले तक डुबो देते।
पिता के घर आयी बेटी अपने बड़े बूढ़ों से जिस अपनेपन की मिठास पाती है, वही मिठास नंदिनी फकीर के इन शब्दों में भी पाती।
कभी कभी बहुत व्यस्त होने के कारण वो एक दो महीने तक पीर बाबा से मिलने नहीं भी जा पाती, तो पीर बाबा के सवालों में एक नई कड़ी जुड़ जाती, “बेटी, बहुत रोज बाद आई हो, सब खैरियत तो है न?”
माता-पिता बचपन में ही सिधार गये। अनाथालय में पली बढ़ी नंदिनी को लगता, हर पिता इसी आकुलता से अपनी विवाहिता बिटिया का इंतजार करता है, जिस तरह पीर बाबा करते हैं।
फिर वो घर से लाई झोली कंधे से उतारकर फकीर बाबा के सामने रखकर नतमस्तक हो जाती, “बाबा, आपके लंगर के लिए कुछ सब्जियां लाई हूं।”
पीर बाबा कौतूहल वश झोली खोलकर देखते और खुश हो जाते। नंदिनी भी उनकी खुशी खूब समझती थी। कैसी भी तुच्छ वस्तु हो एक बेटी की लायी भेंट को पिता कभी भी अस्वीकार नहीं कर सकता। उसे लगता, पीर बाबा उसकी खैरियत पूछकर उसका संकोच दूर करना चाहते थे। जिससे वो अपने भीतर छिपी किसी इच्छापूर्ति की मांग कर सके।
लेकिन नंदिनी का भी एक हठ था कि “मैं याचक नहीं बनूंगी।”
असल में उसकी गिनती उन याचकों में की भी नहीं जा सकती थी जो धन दौलत या घर परिवार की सुख शांति के लिए झोली पसारते हुए पीर फकीरों की दरगाहों पर जाया करते हैं। वह किसी भी तरह के अंधविश्वास के कारण ऐसे फकीरों के प्रति आकर्षित नहीं होती थी, उस फकीर के गहरे और उच्च विचार उसे वहां खींच लाते थे।
उसके मन में एक प्रकार की जिज्ञासा थी कि यदि इस फकीर में कुछ अलौकिक शक्ति है तो वह खुद इसे महसूस करना चाहती थी।
लोगों ने उसे बताया था कि लोग खुश होकर उनके कदमों में न जाने क्या क्या चढ़ा जाते हैं। और वो फकीर उस चढ़ावे से भी दूसरों के भले के बारे में ही सोचते हैं।
दरगाह के पास ही उन्होंने एक पाठशाला खुलवा दी थी। प्रतिदिन लंगर होता, जहां दीन दुखियों को भोजन खिलाया जाता। गर्मियों में कोई श्रद्धालु उन्हें पंखा झल रहा होता, सर्दियों में उनके पास एक पात्र में कोयले दहक रहे होते।
शुरू शुरू में नंदिनी का पीर बाबा की दरगाह पर कभी कभार जाना परिवार के सदस्यों ने सहज रूप से लिया था। फिर धीरे धीरे नंदिनी पर घर में पति और बच्चे ताना कसने लगे, “मां, अब ये फकीर कहां से पकड़ लिया? उसी पर रिसर्च कर रही हैं क्या?”
नंदिनी उनकी बातों को हंसी में टाल देती, “हां, अब तुम लोग इसे फकीर बाबा की नसीहतों का ही नशा समझ लो।”
इससे ज्यादा वो और क्या कहती? उसे कुछ मांगने की जरूरत भी तो नहीं थी। पूरे परिवार की केंद्र भी वही थी और परिधि भी वही थी। पति देवेश का अच्छाखासा बिजनेस था। इसी संबंध में वो परिवार समेत नरेरा में आकर बसे थे।
आम, जामुन, लीची के पेड़ों से घिरा बड़ा सा बंगला। हर समय सलाम ठोकते नौकरों की फौज, ड्राइवर समेत लाइन में खड़ी छोटी बड़ी गाड़ियां। किसी भी चीज या सुविधा की कमी नहीं थी। दो प्यारे प्यारे बेटे। प्यार, मान, सम्मान सब कुछ तो मिला था उसे देवेश के साथ शादी करके। ऐसा लगता जैसे किसी कवि ने ये पक्तियां नंदिनी को ही ध्यान में रखकर लिखी हों-
“सृष्टि नहीं नारी बिना यही जगत आधार
नारी के हर रूप की महिमा बड़ी अपार”
फिर जैसे अचानक उसके सुखद संतुष्ट वैवाहिक जीवन में एक बवंडर आया। समय ने पलटा खाया और काल के क्रूर चक्र ने उसके पति के विवेक को हर लिया। आयात निर्यात का बिजनेस शुरू करते ही देवेश की दिनचर्या बहुत बिजी होने लगी।
शराब से लबरेज पार्टियां और जाम पेश करती सुंदरियों की खूबसूरती में गले गले तक डूबे देवेश को न पत्नी का ध्यान रहता न ही परिवार के प्रति अपना उत्तरदायित्व का ज्ञान। अपनी कमलनी को त्याग कर वो कीचड़ का कीट बन गया। उसने एक नर्स से संबंध बना लिए।
शुरू शुरू में लोक-लाज और बच्चों को ध्यान में रखकर नंदिनी एक बहती नदी की तरह इस कठिन परिस्तिथि में खुद को ढालने की कोशिश करती रही। खुशियों के गेरू से घर को लीपती पोतती रही। यही सोचती रही कि नारी ही रंग गुलाल है, नारी ही दीवाली का दीप है। हर दुख सहकर, तार तार होती रही, फिर भी प्यार बांटती रही। अपनी इस भयंकर वेदना का हाहाकार करने जाती भी कहां?
हालांकि कुछ दोस्तों और रिश्तेदारों का यही मत था कि उसे कानून का सहारा लेकर पति से अलग हो जाना चाहिए। लेकिन देवेश भी कम घाघ नहीं थे। नहले पर दहला मार कर उन्होंने स्पष्ट शब्दों में जतला दिया कि अगर नंदिनी ने कानूनी कार्यवाही की तो उसे आर्थिक सहायता भी नहीं मिलेगी।
लेकिन सहन करने की भी एक सीमा होती है। खामोशी का जहर पीकर तार तार होते रिश्तों को नंदिनी कब तक निभाती, कब तक प्यार बांटती।
उसे खुद पर गुस्सा आता कि आखिर क्यों वह घर-गृहस्थी और बच्चों में इतनी खोयी रही कि पति की घिनौनी हरकत की तरफ ध्यान नहीं दे पायी? क्यों उसने देवेश पर इतना विश्वास किया?
कई बार उसके मन में पीर बाबा का ध्यान आया, लेकिन मांगने के बारे में सोचते ही उसका स्वाभिमान आड़े आ जाता था। उसने कसम खाई थी कि कभी याचक नहीं बनेगी।
फिर भी उसे अपनी कसम को तोड़ना ही पड़ा। पीर बाबा के अलावा इस भरे पूरे संसार में उसका था भी कौन? एक दिन उसने पीर बाबा की शरण ली और खुलकर अपनी व्यथा सुना दी।
समय बीता, प्रकृति ने अपना न्याय करने की ठानी। एक दिन पीर बाबा के शब्द, “हम अपने अभद्र कुकर्मों से ही अपने जीवन को श्मशान बना देते हैं,” सार्थक सिद्ध हुए।
समाज सेविका की हैसियत से वो शहर के एक बड़े हॉस्पिटल में गयी। रोगियों के प्रति डॉक्टरों के निर्मम व्यवहार ने उसे बुरी तरह कंपा दिया।
अचानक उसकी नजर एक ऐसे रोगी पर पड़ी जिसकी दशा दयनीय थी। कंकाल मात्र शरीर की त्वचा फोड़े फुंसियों से अटी पड़ी थी जो बदबू छोड़ रहे थे। गड्ढे में धंसी आंखों में जैसे यहां वहां देखने की शक्ति भी नहीं बची थी। सूखे मुंह से निकले शब्द पानी मांग रहे थे।
नंदिनी कुछ देर ठिठकी, फिर अनायास ही उसके कदम उस कक्ष की ओर बढ़ गये। बाहर लिखा था, ‘एड्स सेल’।
अंदर जाकर देखा, वहां न तो पानी था और न ही पानी रखने के लिए कोई गिलास या जग।
दूसरे ही पल जैसे जमीन उसके पैरों से खिसकती हुई मालूम हुई। नंदिनी को अपनी आंखों पर विश्वास करने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
मौत के क्रूर हाथों ने जिसका गला जकड़ा हुआ था, वो रोगी नंदिनी का अभागा पति देवेश ही था। दो दो बेटों के पिता को मरने के बाद तो क्या जीते जी भी कोई पानी देने वाला नहीं था।
सही कहते थे पीर बाबा, “देर सवेर इंसान को अपने कर्म तो भुगतने ही पड़ते हैं।”
प्रकृति ने निर्ममता से अपना न्याय सुना ही दिया।
– पुष्पा भाटिया
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