Husband separated from me, saying- You are putting the family in danger, I will not leave the tribal community and go to the city. | आदिवासियों के लिए लड़ी: नौकरी छोड़ ‘रंगमाटी’ चलाती, कैंपेन चलाने पर धमकियां मिलतीं, थाने में बार-बार बुलाया जाता, घर सर्च होता, पर झुकी नहीं

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नई दिल्ली4 दिन पहले

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मैं शरण्या नायक ओडिशा के कोरापुट जिले की रहने वाली हूं। पर्यावरणविद कह लीजिए या सोशल वर्कर, आदिवासी समुदाय के हित के लिए लड़ने वाली महिला हूं।

कल्चरल एक्टिविस्ट और पत्रकार रही, खेती-किसानी भी की। लोग रेडिकल फेमिनिस्ट कहते हैं।

शहर का आराम और सुख-सुविधाएं छोड़कर गांव में रहना चुना, तब कई गलतफमियां दूर हुईं।

जीवन के इन सारे अनुभवों को समेटकर दैनिक भास्कर के ‘ये मैं हूं’ में आज अपने सभी अनुभव साझा करती हूं।

कटक में जन्म, ढाई साल की उम्र में पुडुचेरी आश्रम में एडमिशन

मेरा जन्म ओडिशा के कटक में हुआ। परिवार का पुडुचेरी के अरबिंदो आश्रम से गहरा लगाव रहा।

मेरी दादी और मौसी आश्रम के नर्सिंग होम में पैथोलॉजिस्ट थीं। जब मैं ढाई साल की थी तब ही श्री अरबिंदो इंटरनेशनल सेंटर फॉर एजुकेशन में एडमिशन करा दिया गया।

किंडरगार्टन में 3 साल घर में रहना होता है तो मैं पहले 3 साल तक दादी और मौसी के साथ रही।

कक्षा एक से लेकर 10वीं तक हॉस्टल में रहकर पढ़ाई की। साल में एक बार ही ओडिशा घर पर आ पाती।

पुडुचेरी में रहने की वजह से न केवल तमिल भाषा सीखी बल्कि वहां के तमिल कल्चर को अपनाया। 10वीं के बाद 12वीं और ग्रेजुएशन मैंने ओडिशा से किया।

आदिवासी समुदाय के लोगों के साथ शरण्या नायक।

आदिवासी समुदाय के लोगों के साथ शरण्या नायक।

फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ्स फ्रेंच में और हिस्ट्री-ज्योग्राफी अंग्रेजी में पढ़ी

अरबिंदो आश्रम एक ऐसा आश्रम है जहां ‘डेमोक्रेटिक वे ऑफ लर्निंग’ है। न रूल्स, न रेगुलेशन। सवाल पूछिए, जबरन आप पर कोई चीज थोपी नहीं जाती।

पहली से लेकर 10वीं तक कभी परीक्षा नहीं होती। बस कुछ असाइनमेंट और क्लास टेस्ट ही देने होते हैं। साल के अंत में बस रिमार्क्स मिलते हैं गुड, फेयर, एक्सिलेंट।

आश्रम के हर क्लास में 15-20 स्टूडेंट्स ही होते हैं। क्लास में कोई मॉनिटर नहीं होता। सबकी जिम्मेदारी तय है कि कौन ब्लैकबोर्ड साफ करेगा और कौन टेबल पर फूल सजाएगा।

आश्रम में कॉम्पिटिशन और भेदभाव की भावना देखने को नहीं मिलती। साथ ही क्लास में फर्स्ट, सेकेंड, थर्ड होने का कॉन्सेप्ट ही नहीं।

न कोई जाति, न कोई नस्ल, न कोई धर्म, सब बराबर माने जाते हैं और आपकी अपनी कोई आइडेंडिटी नहीं है। इस खुलेपन के साथ मैंने पुडुचेरी आश्रम में पढ़ाई की।

फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ्स, बायोलॉजी मैंने फ्रेंच में सीखा जबकि इतिहास और भूगोल अंग्रेजी में। क्लास 7वीं तक मातृ भाषा सीखना जरूरी था। इसलिए मैं उड़िया भाषा सीख पाई।

आगे जब ओडिशा में काम करना शुरू किया तब यह मेरे लिए वरदान साबित हुआ।

आश्रम में फिजिकल और मेंटल एजुकेशन पर एकसमान जोर होता। दिन में पढ़ाई होती तो शाम को फिजिकल एजुकेशन की क्लास होती।

सप्ताह में हर दिन कोई न कोई खेल खिलाया जाता। बॉक्सिंग, फुटबॉल, हॉकी, रेसलिंग, स्वीमिंग, एथलेटिक्स सब पर बराबर का जोर होता।

शॉर्ट या जींस में होती तो लोग कमेंट करते

मेरे पिता भद्रक में पॉलिटिकल साइंस के टीचर थे। मैं पहली बार पुडुचेरी गई। वहां की स्थानीय उड़िया भाषा अलग थी। मुझे समझने में परेशानी होती। लोग पूछते कि किस कास्ट की हो।

मैं शॉर्ट्स में रहती, जींस पहनती तो लोग कमेंट करते। 1987 में मैं अपने एरिया में साइकिल चलाने वाली अकेली लड़की थी।

कई बार लड़के साइकिल के टायर की हवा निकाल देते। सीट काट देते, भद्दा कमेंट लिखकर पूर्जे फेंकते।

पुडुचेरी में जो दुनिया देखी थी वो बहुत सेफ और सुरक्षित दुनिया थी। तब जब इस तरह की दुनिया से सामना हुआ तो मुझे लगा कि इस नई दुनिया से मुझे लड़ना है।

भद्रक से निकलकर कटक पहुंची और वहां सोशियोलॉजी में ग्रेजुएशन किया। उन दिनों खूब पढ़ती। मेरी मौसी प्रोफेसर थीं, वह मेरी पढ़ाई में मदद करतीं।

शरण्या नायक ओडिशा के कोरापुट में रहकर आदिवासी हितों के लिए काम कर रही हैं।

शरण्या नायक ओडिशा के कोरापुट में रहकर आदिवासी हितों के लिए काम कर रही हैं।

महाश्वेता देवी की तरह बनना चाहती, उनको अपना आदर्श बनाया

जब यूनिवर्सिटी गई तो वह समय मेरे लिए टर्निंग पॉइंट बना। मेरे कई सहपाठी दलित और आदिवासी भी थे।

उस समय महाश्वेता देवी को पढ़ा और मैं उनसे इतना प्रभावित हुई कि उनके जैसा बनना चाहती।

आदिवासी समाज के साथ रहना, उनकी कहानियों को सामने लाना, लिखना अच्छा लगता। इसी सोच के साथ पत्रकारिता में (1996-99) तक आई कि लिखने का मौका मिलेगा। लेकिन ऐसा संभव नहीं हुआ।

नक्सलियों के डर से लोग मलकानगिरी नहीं जाना चाहते थे

मैं शहर में नहीं रहना चाहती थी। मलकानगिरी में फील्ड ऑफिसर चाहिए था। लेकिन नक्सली प्रभावित इलाके में लोग नहीं जाना चाहते थे। मुझे डर नहीं लगता था और ‘एक्शन एड’ संस्था से जुड़कर मलकानगिरी पहुंच गई।

मैं सोचती कि आदिवासियों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य कितना जरूरी है और यही आदिवासी को बचा सकते हैं। लेकिन वहां गई तो पता चला कि आदिवासी समाज बहुत आत्मनिर्भर और आत्मसम्मान से भरा हुआ है। वो शहरी समाज से ज्यादा प्रगतिशील भी है और ज्यादा सम्मानजनक जिंदगी जी रहा है।

गांव के लोग कहते कि हम पर बाहरी और नई व्यवस्था जबरन थोपी जाती हैं। हमारी पहचान गुम हो रही है इसलिए हम लड़ रहे हैं।

आदिवासियों को उनके अधिकारों के बारे में बताया जाता है।

आदिवासियों को उनके अधिकारों के बारे में बताया जाता है।

जमींदार, ठेकेदार आदिवासियों का शोषण करते

मलकानगिरी में फॉरेस्ट डिपार्टमेंट और रेवेन्यू के अधिकारी बहुत अत्याचार करते थे। थानेदार, तहसीलदार, ठेकेदार और जमींदार उस अत्याचार का हिस्सा होते।

मैं आदिवासी समुदाय को बताती हि हम उनके अधिकार के लिए कैसे लड़ें और संविधान ने हमें क्या अधिकार दिए हैं।

मैं यही सोचती कि उनकी लड़ाई को कैसे मजबूत किया जाए। आदिवासी समुदाय के लोगों को फॉरेस्ट डिपार्टमेंट से नोटिस आता, थाना से अरेस्ट वारंट निकलता तो वकील से बातचीत करती। वकील भी आदवासियों का शोषण करते।

आंध्र प्रदेश-ओडिशा एरिया में कई आदिवासी युवा लड़कों को फर्जी केस में फंसा दिया जाता। 120बी का सेक्शन लगाते। इन सबकी समझ रखने के लिए मैंने 2012 में कानून की पढ़ाई की।

आदिवासी समुदाय ने जीवन जीने का नजरिया बदल दिया

आदिवासी समुदाय के बीच काम करते हुए अलग-अलग गांवों में 10-15 दिनों तक रहना होता।

उनके बीच रहते हुए जाना कि आदिवासी समाज पेड़ पौधे, खेत यानी इकोलॉजी को अलग से नहीं देखते थे। आदिवासी जानवर को भी अपने भाई-बहन की तरह ही देखते हैं।

उस समाज में जानवरों को भी बराबर का हिस्सा मिलता है। फल हो या फसल, अपने देवता को चढ़ाए बिना नहीं खाते।

मलकानगिरी के साथ रायगड़, कोरापुट, बोलनगिर में लगातार काम करती रही। बस्तर में भी काम किया।

आदिवासी समुदाय के लोगों के साथ बैठक करतीं शरण्या।

आदिवासी समुदाय के लोगों के साथ बैठक करतीं शरण्या।

कम्यूनिटी लर्निंग शुरू किया, बच्चों को उनकी काबिलियत बताती

आदिवासी समुदाय के बच्चों को रेसिडेंशियल स्कूल में धकेला जाता है। ये समझ बढ़ी कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था कैसे आदिवासी समाज को उसकी जड़ों से काट रहा है।

शिक्षा को प्रोपेगेंडा का जरिया बनाया गया ताकि आदिवासी समुदाय की पहचान को काबू में किया जा सके। ये मैंने यहां आकर समझा। मैंने इसलिए कम्यूनिटी लर्निंग शुरू की।

बच्चे दिन में स्कूल में जाते और शाम में इंटरजेनेरेशनल लर्निंग की क्लास चलती। यानी दो पीढ़ी के लोग एक साथ बैठते। दादा, पोता, दादी पोती, बच्चे और बड़े-बुजुर्ग एक साथ होते। क्लास में समाज के पुराने ज्ञान पर बात होती।

10 एकड़ जमीन खरीदी, इस पर ‘रंगमाटी’ की शुरुआत की

मैंने 10 एकड़ जमीन खरीदी। लक्ष्य यही था कि खुद खेती करेंगे। जब 2005-06 में जमीन की नपाई की जा रही थी तब स्थानीय लोगों ने कहा कि आप लोग बाहर से आकर जमीन खरीद रहे हैं, लेकिन ये हमारे बाप दादा की जमीन है।

तब मुझे अहसास हुआ कि मैंने कितनी बड़ी गलती की।

इसी दौरान तमिलनाडु के कांचीपुरम में मक्कल मंदरम के बारे में पता चला जो कि पीपुल्स फोरम है। वहां से ही कम्यून चलाने का आइडिया आया जिसे हम ‘रंगमाटी’ कहते हैं।

2015 में मैंने नौकरी छोड़ इस जमीन पर मिट्‌टी का घर बनाया। तीन आदिवासी परिवारों को अपने साथ रखना शुरू किया।

इसमें एक दलित क्रिश्चियन परिवार, एक कौंधो और एक कोया आदिवासी परिवार है। इसमें सात बच्चे और 9 वयस्क हैं।

ये बच्चे स्कूल जाते हैं। हफ्ते में उन्हें फिल्म दिखाती हूं। अलग-अलग लड़ाइयों के बारे में बताती हूं। यही नहीं, हम सब मिलकर अलग-अलग तरह की खेती करते हैं।

नक्सलियों से सहानुभूति रखने के आरोप में मुझ पर नजर रखी जाती

सरकार को लगता कि मैं नक्सलियों से सहानुभूति रखती हूं जबकि मैंने कभी किसी नक्सली को देखा नहीं।

लेकिन मुझ पर नजर रखी जाती। सुरक्षा एजेंसियां पूछताछ करतीं। मुझे 149 और 109 के 4 नोटिस मिले। आंदोलन में जाने से रोका गया।

कोरापुट में जमींदारों के खिलाफ आंदोलन में एक्टिव रही, पुलिस ने काफी परेशान किया

2008 में कोरापुट में जमींदारों के खिलाफ बड़ा आंदोलन हुआ तो मैं काफी एक्टिव रही। तब पुलिस हम पर नजर रखती।

आदिवासी महिलाओं ने पुलिस पर गैंगरेप का आरोप लगाया। केस नहीं हो रहा था, मैंने लड़ाई कर केस दर्ज कराया। जांच हुई तो उल्टा पुलिस ने केस कर दिया।

50 बार मुझे थाना बुलाया जाता। घर में घुस कर सर्च किया जाता।

मकान मालिक डर से कहता कि घर छोड़ दो। तब मैंने घर में किसी को नहीं बताया। तब पति के साथ भी मेरे मतभेद रहे। उन्होंने मेरा साथ नहीं दिया।

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