नई दिल्ली1 घंटे पहलेलेखक: संजय सिन्हा
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‘यू आर ए गुड गर्ल’, तुम क्लास में हमेशा डिसिप्लिन में रहती हो, कभी पीछे मुड़कर नहीं देखती, होमवर्क सारे पूरी करती हो, बाकी दूसरी लड़कियों को तुमसे सीखना चाहिए’।
क्लासरूम में टीचर के चश्मे के भीतर से झांकती आंखें और वो लफ्ज…गुड गर्ल।
घर में जवान होती लड़की रोटी गोल बना ले तो दादी बोल पड़ेंगी ओह! कितनी अच्छी लड़की है, कितनी प्यारी है मेरी नजर न लगे। जिस घर जाएगी वह खुशहाल हो जाएगा।
अच्छी लड़की ऐसी होती है, अच्छी औरत ऐसी होती है हर घर-परिवार में ये बात होती है।
कोई लड़की वैसा बर्ताव करती है जैसा उसे बोला जाता है और वह जेंडर के अनुकूल हो तो वह गुड गर्ल है।
घर से बाहर मत निकलो, यहां मत जाओ, काम मत करो, बच्चे पालो, खाना बनाओ, घर से बाहर जा भी रही तो भी खाना बनाओ, पति की सेवा करो, त्याग की प्रतिमूर्ति बनो। जब तक आप समाज के बनाए रूल्स एंड रेगुलेशंस के दायरे में काम करते हैं तो आप गुड गर्ल होती हैं।
घर, स्कूल, ऑफिस जहां भी हो, अपने आसपास सबको खुश रखना, हमेशा आज्ञाकारी बने रहना।
लखनऊ स्थित साइकोथेरेपिस्ट स्निग्धा मिश्रा कहती हैं कि गुड गर्ल का लेबल चिपका कर लड़की की दूसरी समस्याओं को खारिज कर दिया जाता है।
ऐसा करके उन्हें ट्रैप किया जाता है। यह उनके फ्रीडम को बांधने का षडयंत्र होता है। समाज महिलाओं पर थोपता है और फिर उम्मीदें पालता है कि वह ऐसा ही करेगी। ऐसा करने से महिला का अपना सेल्फ रिस्पेक्ट, सेल्फ स्टीम खत्म हो जाता है।
क्या गुड गर्ल सिंड्रोम कोई बीमारी या डिसऑर्डर है?
पंजाब यूनिवर्सिटी की साइकोलॉजी की प्रोफेसर डॉ. सीमा विनायक कहती हैं कि ‘गुड गर्ल’ न तो कोई सिंड्रोम है न कोई डिसऑर्डर है। यह एक विचारधारा है या फिर एक तरह का बिहेवियर है। इसे बिहेवियर न कहके गुड गर्ल कॉम्प्लेक्स कह सकते हैं।
जिन लड़कियों में गुड गर्ल कॉम्प्लेक्स होता है (लड़कों में भी हो सकता है) उनमें बचपन से ही एक खास तरह का बिहेवियर देखने को मिलता है। वे हर चीज को स्वीकार कर लेते हैं।
वे उसे चुनौती नहीं देती। जो लड़कियां मां की तरह व्यवहार करती हैं सबका ध्यान रखती हैं, उन्हें समाज से प्रशंसा मिलती है।
यह धीरे-धीरे लड़की के मन-मस्तिष्क में कई चीजें भरता जाता है।
उसके कुछ करने से किसी को नुकसान न पहुंचे, वह बने बनाए पैटर्न से अलग करेगी तो लोग क्या कहेंगे (फियर ऑफ रेजेक्शन), हर काम को करने से पहले माता-पिता, पति से एप्रूवल लेना, खुद को किनारे कर दूसरों की जरूरतों को महत्व देना।
गुड गर्ल के खांचे में फिट लड़की कई तरह की मानसिक और शारीरिक परेशानियों में घिरती-उलझती चली जाती है।
हम क्या करें कि परिवार खुश रहे, मर्जी से भी सबकुछ करती रहती हैं
कई बार लड़कियां अपनी मर्जी से कुर्बानी देने के लिए तैयार रहती हैं। वो परिवार के लिए सबकुछ करना चाहती हैं जिससे सब खुश रहें।
स्निग्धा कहती हैं कि जब आपके अंदर सेल्फ प्रेज की कमी है तो ऐसा कुछ करना चाहते हैं कि लोग खुश हो जाएं। इसलिए हम वो सारी चीज करेंगे जिससे कोई खुश हो भले ही हमारा स्वाभिमान, सेल्फ रेस्पेक्ट, हमारे खुद के जीवन के वैल्यूज और रूल्स क्यों न कंप्रोमाइज हों।
कई बार हम अपने जीवन के रूल्स और वैल्यूज को बना ही नहीं पाते हैं क्योंकि हमें पता ही नहीं होता कि हमें जीवन में क्या चाहिए? न ही इसे ढूंढने की कोशिश करते हैं।
हमारे जीवन जीने का तरीका इस पर निर्धारित होता है कि दूसरा हमसे कितना खुश रहता है।
महिला को उसकी पहचान बनाने और एक्सप्लोर करने का मौका ही नहीं मिलता।
खाना अच्छा बनाऊंगी तो अच्छी बीबी कहलाऊंगी
हर इंसान चाहता है कि उसकी वाहवाही हो तो इसके लिए मापदंड भी खुद बनाते हैं। ‘मैं खाना बहुत अच्छा बनाऊंगी तो अच्छी बीवी कहलाऊंगी’, ‘बच्चों को अच्छे से देखभाल करूंगी, बच्चे अनुशासित होंगे तो मैं अच्छी मां कहलाऊंगी। यानी खुद को दूसरों की नजर से देखते हैं।
आपको अपने अंदर कमियां लगती हैं तो आप दूसरों से चाहते हैं कि कोई मेरी प्रशंसा करे।
तुम कितनी अच्छी हो, तुम कितनी सुंदर हो ये सुनने के लिए आप ऐसा व्यवहार करते हैं जो दूसरों को खुश करते रहता है। इस चक्कर में आपकी पर्सनैलिटी बिखर जाती है।
‘गुड गर्ल सिंड्रोम’ के पीछे पित्तृसत्तात्मक सोच
गुड गर्ल कहलाने के पीछे पितृसत्तामक सोच और सोशल स्ट्रक्चर काम करता है जहां खुले विचार और खुद को अभिव्यक्त करने की मनाही होती है।
कोई किसी को जब कहता है कि बड़ी अच्छी लड़की है क्योंकि वो समाज के बनाए नियमों को मानती है, कोई विद्रोह नहीं करती। यह पितृसत्तात्मक सोच ऐसा करने के लिए उसे बाध्य भी करती है। बड़ी अच्छी लड़की वह तब तक रहती है जब तक वह सबको खुश करती रहेगी।
अगर ऐसा नहीं करती तो वह गंदी लड़की हो जाएगी। स्निग्धा कहती हैं कि गंदी लड़की बनने की हिम्मत सबमें नहीं होती है।
जिस दिन लड़की समाज के नियमों से अलग अपनी पहचान बनाने लगती है लोग उन्हें टेढ़ी नजरों से देखने लगते हैं।
हालांकि कुछ ही लड़कियां या महिलाएं सिस्टम को चैलेंज करती हैं और इसलिए उन्हें आलोचना और भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
केवल होममेकर नहीं, कोई भी गुड गर्ल सिंड्रोम से पीड़ित हो सकता है
कई लोग इस मुगालते में होते हैं कि केवल घर में महिलाएं या होममेकर ही गुड गर्ल सिंड्रोम से पीड़ित होती हैं।
ऐसा नहीं है। घर से बाहर ऑफिस में काम करने वाली महिलाएं या कोई भी गुड गर्ल सिंड्रोम से पीड़ित हो सकता है।
ऑफिस जाने से पहले पति के लिए खाना पकाना, टिफिन पैक करना और ऑफिस से आने के बाद भी खाना पकाना, घर की साफ-सफाई, बर्तन मांजना, ये परिवार के लोग उम्मीद करते हैं।
अगर आप ऐसा नहीं करती हैं तो आप गुड गर्ल नहीं हैं ‘बैड गर्ल’ हैं या ‘बैड वुमन’ हैं।
‘ना’ कहेंगी तो इस सिंड्रोम से बाहर निकल पाएंगी
गुड गर्ल सिंड्रोम से पीड़ित होने पर आपमें किसी को ना कहने की हिम्मत नहीं होती। जब ये हिम्मत आ जाए कि किसी को ना कह सकते हैं तो आप इस सिंड्रोम से बाहर निकल आएंगी।
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