Brought 7 coffee beans to India secretly | कॉफी के 7 दाने छिपाकर भारत लाए: इंडियन कॉफी हाउस ने बनाया मशहूर, कॉफी पॉइंट बने प्यार के इजहार की जगह

नई दिल्ली7 घंटे पहले

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साल 2012 के शुरुआत का कोई महीना रहा होगा। दोनों दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन में मिले। यहीं से दोनों के मिलने का सिलसिला शुरू हुआ।

किसी भी प्रदर्शन में पहुंच जाते, साथ मिलकर नारे लगाते। मीटिंग से निकलकर पटेल चौक पर यूएनआई कैंटीन में कुछ खाते और कॉफी भी पीते। मालविका और दीपक दोनों को कॉपी पसंद थी, और धीरे धीरे अब दोनों एक दूसरे को भी पसंद करने लगे।

मंडी हाउस में नाटक देखना और घूमते घूमते इंडियन कॉफी हाउस, कनॉट प्लेस पहुंच जाना भी उनका अक्सर होता। यह मिलना-मिलाना यूं ही नहीं था। मालविका और दीपक के बीच कुछ ‘ब्रू’ हो रहा था।

फूड साइंस कहता है कि कॉफी में मौजूद कैफीन ताजगी महसूस कराती और एनर्जी देती है। धमनियों में खून तेजी से दौड़ने लगता है। उंघता इंसान भी कुछ रचने लगता है। हर मुलाकात के बाद मालविका और दीपक भी शायद ऐसी ही एनर्जी फील करने लगे।

उनकी मुलाकात में कैफीन गर्मजोशी भरती। इंडियन सिनेमा पर रिसर्च करने वाली मालविका ने दीपक को बॉलीवुड के न जाने कितने रुमानी किस्से कॉफी की गरम खुशबू में घोलकर सुनाए और धीरे धीरे हर कहानी दीपक के जेहन में कॉफी की खुशबू की तरह ही रम गई।

देशभर में कॉपी शॉप कपल के लिए वक्त गुजारने के जगह के रूप में विकसित हुए हैं।

देशभर में कॉपी शॉप कपल के लिए वक्त गुजारने के जगह के रूप में विकसित हुए हैं।

इंडियन कॉफी हाउस में बैठी मालविका का एक शाम ढलते सूरज की रोशनी में नहाया चेहरा दीपक के दिल में हमेशा के लिए उतर गया। ये और बात है कि शर्मिला दीपक कुछ बोल नहीं पाया।

एक रोज दीपक ने मालविका को अनायास ही कॉफी पीने का ऑफर दिया। शायद मालविका को कॉफी के बहाने मिलने वाले प्रस्ताव का पूर्वाभास रहा होगा।

इसलिए कॉफी ऑफर पर मालविका का कहना था कि उसे तीन मूर्ति लाइब्रेरी की कॉफी बहुत पसंद है। मालविका को किताबों और लोगों के बीच रहना हमेशा से पसंद था।

दीपक पहली बार तीन मूर्ति के कैफेटेरिया गया। तीन मूर्ति लाइब्रेरी में कॉफी पीने का ये वो दिन था जब दीपक और मालविका ने तय किया कि वो आगे की जिंदगी में ऐसे ही साथ-साथ चलते रहेंगे।

ताज्जुब कर रहे होंगे कि आज ‘फुरसत का रविवार’ में हम पहली बार प्रेम की ये कहानी क्यों सुना रहे हैं? वो इसलिए कि यह सच्ची कहानी महज एक लव स्टोरी ही नहीं बल्कि इस कहानी का एक सिरा कॉफी के कप और उसकी महक से भी जुड़ा है।

इंडियन कॉफी हाउस की जब भी चर्चा होती है, बुद्धिजीवियों, प्रोफेसर, कलाकार और छात्रों की बैठकी के अड्डा के तौर पर उसकी तस्वीर उभरती है। लेकिन वैलेंटाइन वीक में आज हम कॉफी में घुले प्रेम और उसके भारतीय सफर की बात करेंगे।

आस्तीन में कॉफी के 7 दाने छिपाकर भारत लाए संत

सेलिब्रेटी शेफ रणवीर बरार बताते हैं कि कॉफी के हिंदुस्तान आने की कहानी यमन से जुड़ी हुई है। यमन के मोखा (Mocha) पोर्ट से कॉफी चलकर हिंदुस्तान आई।

हुआ कुछ यूं कि बाबा बुदान नाम के सुफी संत हज करने गए। लौटते वक्त उन्होंने यमन के इसी बंदरगाह पर कॉफी पी।

लेकिन यमनी लोग बिना रोस्ट किए हुए कॉफी बीन्स किसी को नहीं देते थे। इसकी वजह से काफी दिनों तक कहीं किसी दूसरी जगह कॉफी का पौधा उगा नहीं और कॉफी अनोखी ड्रिंक बनी रही।

मगर बाबा बुदान ने हरी कॉफी के सात दाने लिए और अपनी आस्तीन में छिपाकर सिलवा लिए। इस तरह वह यमन से कॉफी लेकर हिंदुस्तान आ पहुंचे।

भारत में जहां कॉफी पहली बार उगाई गई वह बाबा बुदीन का गांव था। इस गांव को मदर ऑफ इंडियन कॉफी यानी ‘भारतीय कॉफी की मातृ स्थली’ के तौर पर भी जाना जाता है। यह जगह कर्नाटक में है।

इंडियन कॉफी हाउस ने लगाया चस्का

मगर कॉफी के स्वाद का चस्का हर जुबान पर टिकाने और ‘इंटेलेक्चुअल्स ड्रिंक’ यानी बुद्धिजीवियों का मनपसंद पेय बनाने का श्रेय इंडियन कॉफी हाउस के नाम दर्ज है।

भारत में पहला इंडियन कॉफी हाउस मुंबई में 1936 में खुला। अंग्रेजों के जमाने में यह इतना तेजी से पॉपुलर हुआ कि उस समय देश में इसकी 72 शाखाएं खुलीं। इंडियन कॉफी बोर्ड ने कॉफी हाउस खोलने के लिए स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटीज कैम्पस, दफ्तर और रेलवे स्टेशनों के ईर्द-गिर्द के इलाके चुने।

इंडियन कॉफ़ी वर्कर्स सहकारी सोसायटी की स्थापना सन् 1958 में हुई। हालांकि भारत में कॉफ़ी बोर्ड की स्थापना ब्रिटिश शासन के दौरान सन् 1940 में हो चुकी थी। उसके बाद भारत के कई हिस्सों में कॉफ़ी हाउस खोले गए।

आज़ादी के बाद 1957 में सरकार को लगा कि इन कॉफ़ी हाउस को चलाना घाटे का सौदा है तो उसने कॉफी हाउस की कई यूनिट्स को बंद कर दिया। कर्मचारियों की छंटनी होने लगी।

सरकारी फैसले की एक वजह यह भी थी कि भारत सरकार को बाहरी मुल्कों को कॉफी निर्यात करने में ज्यादा मुनाफा नजर रहा था।

सरकार के इस अचानक फैसले से कई कर्मचारियों की नौकरियां चली गई। इस कठिन परिस्थिति में आल इंडिया कॉफ़ी बोर्ड लेबर यूनियन, दिल्ली ने मामले में हस्तक्षेप किया।

देश के विभिन्न हिस्सों में बने कॉफी हाउस की झलक।

देश के विभिन्न हिस्सों में बने कॉफी हाउस की झलक।

यूनियन के नेता ए के गोपालन साहब संसद में विपक्ष के बड़े नेता थे। कर्मचारियों की छंटनी और कॉफी बोर्ड की खराब हालत को लेकर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मुलाकात की।

कॉफ़ी बोर्ड के कर्मचारियों का एक डेलीगेशन भी उनके साथ गया। प्रधानमंत्री नेहरू ने विपक्ष के नेता के साथ कर्मचारियों की बात ध्यान से सुनी।

बैठक में छंटनी के शिकार कर्मचारियों को लेकर अलग सहकारी समितियां बनाने और उन समितियों की तरफ से अलग-अलग शहरों में कॉफी हाउस चलाने का सुझाव सामने आया।

ए के गोपालन के गाइडेंस में अलग-अलग शहरों में 13 सहकारी समितियों का गठन हुआ। इनमें जबलपुर, त्रिचूर और कन्नूर (केरल), दिल्ली, कोलकाता, पुडुचेरी, नागपुर, मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई, लखनऊ, बेल्लारी और पुणे जैसे प्रमुख शहरों को चुना गया। इन सभी समितियों का नाम इंडियन कॉफी वर्कर्स को-ऑपरेटिव सोसायटी रखा गया।

ए के राजगोपालन ने जबलपुर में कॉफ़ी हाउस के गठन का इतिहास बताते हुए उस दौर के दो श्रमिक नेताओं एल एन मेहरोत्रा और पी सदाशिवन नायरका का विशेष ज़िक्र किया।

इन दो नेताओं के मार्गदर्शन में इंडियन कॉफ़ी वर्कर्स कोऑपरेटिव सोसायटी लिमिटेड, जबलपुर का गठन हुआ। महज 1365 रुपए से इसकी शुरुआत हुई। शुरुआती दौर में बहुत सारी कठिनाइयां रहीं।

सिलसिला चलता रहा। सन् 1981 में ए के राजगोपालन ने समिति के सचिव का कार्यभार संभाला। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कई शहरों में कॉफ़ी हाउस की शाखाएं खोली गईं।

मोखा कॉफी कैसे बनीं

रणवीर बरार कहते हैं कि भगवान ने दो बीन्स बनाई एक कोको बीन, एक कॉफी बीन। यूरोप में दोनों को मिला दिया गया तो मोखा क़ॉफी तैयार हो गई। कॉफी की रेसिपी मिडिल ईस्ट में तैयार हुई लेकिन जब यह यूरोप पहुंची तो इसमें आइसक्रीम मिला दी गई। यहीं से रोमांटिक कोल्ड कॉफी विद आइसक्रीम का एक ड्रिंक तैयार हो गया।

ग्राफिक्स: सत्यम परिडा

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