Anand has played the role of a hero and not a villain. The villain was actually Rakesh | प्यार में खलनायक: आनंद ने खलनायक का नहीं नायक का रोल अदा किया है, खलनायक तो असल में राकेश था

52 मिनट पहले

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कई बार एक अनजान सा चेहरा जाने अनजाने हमारे दिलों दिमाग़ पर छाया तो रहता है लेकिन। जीवन की व्यस्तताओं के चलते हमारा ध्यान उसकी तरफ़ नहीं जाता, और फिर अचानक से हमें महसूस होने लगता है कि वो, हमारे शरीर का ही एक ऐसा हिस्सा था जिसे उपेक्षित तो किया जा सकता था लेकिन, ख़ुद से काटकर अलग नहीं किया जा सकता था। और तब ये सब और भी ज़्यादा मुश्किल हो जाता है जब वो चुटकी भर राख में बदल चुका होता है। ये एहसास मुझे तब हुआ जब श्रद्धा दीदी नहीं रहीं। आज सोचती हूं “किस तरह उन्होंने अपने हालात से समझौता किया होगा, जबरन या किसी मजबूरी से, वरना ज़िंदगी उनके लिए एक खंडहर मात्र ही तो थी।“

आज फ़ेसबुक पर डॉक्टर अनन्या के विवाह का निमंत्रण पत्र देख कर मन आंदोलित हो उठा था। अनन्या यानि अनु के लिए बरसों मेरे मन में जिज्ञासा रही थी लेकिन मन में दबे हुए एक अनजाने भय के कारण, उसके विषय में किसी से भी पूछने की मैं हिम्मत, कभी नहीं जुटा पाई। विवाह के निमंत्रण पत्र पर, आर एस वी पी के रूप में जो मैं देखना चाह रही थी वहां आनंद का नाम था जिसने पल भर में ही उसे खलनायक से नायक बना दिया था और अनायास ही मेरा हाथ, आशीर्वाद की तरह उसके अनुपस्थित सिर पर ठहर गया था।

बीस बाईस वर्ष पुरानी कितनी ही घटनाएं स्मृति में कौंधने लगीं थीं। उन दिनों श्रद्धा दीदी, राकेश और आनंद हमारी कॉलोनी के मुख्य पात्र थे जिनकी दिनचर्या की हर गतिविधि को जानने के लिये कॉलोनी के लोग हमेशा उत्सुक रहते थे।’ श्रद्धा दीदी बुरी औरत थीं, उनके पति राकेश शराबी थे जो, अपनी गृहस्थी ही संभाल नहीं पाये। और आनंद एक खलनायक था जिसे देखने से हम सबको बचाया जाता था,और जब तक वो,उनके घर के भीतर से लौटकर बाहर नहीं आता था तब तक सबकी निगाहें, उसी दरवाज़े पर अटकी रहती थीं। हमेशा क़लफ़दार कुर्ते पैज़ामे में ये अनचाहा व्यक्ति ,राकेश का बॉस था, जिसने, सहानुभूतिवश उनकी गृहस्थी को संभालते संभालते, उनकी पूरी ज़िंदगी को ही साधिकार अपनी मुट्ठी में क़ैद कर लिया था। अनन्या यानी अनु। छह-सात बरस की सुंदर सी बच्ची जिसका भविष्य उसकी मां श्रद्धा दी के हाथ में था। या शायद आनंद के हाथ में था।

हमारे घर के ठीक सामने, चरमराते फाटक के भीतर उस टूटे हुए मकान में, तमाम आलोचनाओं और अवहेलनाओं की केंद्र श्रद्धा दीदी, बदरंग, झिरती दीवारों के बीच रहती थीं। बाहर झुलंगी सी रस्सी पर आठ दस कपड़े झूलते रहते थे। इधर उधर ऊबड़ खाबड़ सी ज़मीन जिसे,दुरुस्त करने की कभी किसी ने शायद कोशिश ही नहीं की थी।

श्रद्धा दीदी मुझे जानती थीं पर मां ने मुझे कभी भी उनके सामने पड़ने नहीं दिया था।

लेकिन एक दिन उनकी छाया से मुझे बचाने का मां का हर प्रयास व्यर्थ हो गया था। उस दिन कॉलेज से मैं जल्दी वापस लौट आयी थी। घर का दरवाज़ा खुला हुआ था। श्रद्धा दीदी मां के सामने बैठी हुई थीं। दुबली पतली सलीकेदार महीन साड़ी। माथे पर बिंदी और चेहरा सहज सरल। हालांकि श्रद्धा दीदी के साथ, इस तरह मेरा, कभी भी सामना नहीं हुआ था फिर भी न जाने क्यों उनका व्यक्तित्व मुझे, हमेशा ही निष्पाप लगता था। मुझे लगता, ज़रूर कोई ऐसी विवशता ही होती होगी कि, सीधे रास्ते चलते-चलते आदमी भटक जाता होगा। और वहां से वापस लौटना या रास्ता बदल लेना उसके लिए नामुमकिन सा हो जाता होगा। लेकिन मां हमेशा ही श्रद्धा दीदी को ही दुत्कारतीं थीं,

“हिमपात में घोंसला बनाने वालों का यही हाल होता है”

हम अक्सर एक झूठ अपने इर्दगिर्द गढ़ लेते हैं, फिर जानबूझकर भी उनके बीच से निकलते नहीं हैं, क्योंकि हम निकलना ही नहीं चाहते। आज मुझे लगता है, मां भी ज़रूर जानती होंगी कि जैसा वो श्रद्धा दीदी के बारे में सोचती हैं वैसा कुछ नहीं है किंतु उन्हें ख़राब औरत प्रमाणित करने के अलावा उनके पास दूसरा विकल्प ही क्या था।

“मैं बिंदु हूं। बिन्देश्वरी”उनके पास बैठकर मैंने अपना परिचय दिया तो बोलीं,

“हां हां जानती हूं। मैं तो पेंटिंग देख रही थी। डूबते सूरज की टुकड़ों टुकड़ों में बंटी सिंदूरी परछाई, ज़मीन पर ठाठें मारता समुंदर। ये सचमुच तुमने बनाई है?”

श्रद्धा दीदी ने उत्सुकता से पूछा था। उधर मां भी मेरी प्रशंसा सुनकर बाग बाग हो रही थीं। लेकिन, श्रद्धा दीदी के सामने, मेरे इस तरह बैठने से परेशान भी हो रही थीं। जिसे व्यवहार कुशल दीदी समझ चुकी थीं। बिना किसी औपचारिकता के वो सहजता से उठ कर खड़ी हो गयीं थीं और सहज होने का दिखावा करती हुई वापस लौट गयी थीं।

“ न जाने क्यों चली आती है। कॉलोनी में सभी इसकी चर्चा करते रहते है” मां मुझे जता रही थीं या शायद उनकी परछाई से भी मुझे दूर रखना चाह रही थीं।, ”श्रद्धा दीदी अस्पताल में हैं”

पूरी कॉलोनी में ये खबर फैली हुई थी।” क्या हुआ ये कोई नहीं जानता था “या लोग जानबूझकर भी अनजान बने हुए थे। घर से निकलना संभव नहीं था, क्योंकि, उनके प्रति कॉलोनी के हर व्यक्ति की तरह मां भी उदासीन थीं। इसीलिए श्रद्धा दीदी के बारे में उनसे या, किसी और से कुछ भी पूछना बेकार था। मैं यूनिवर्सिटी से सीधे ही अस्पताल पहुंच गयी। दीवार के सहारे खड़े राकेश कॉरिडोर में ही मिल गये थे। कुछ आश्चर्य और फिर उदासीन भाव से उन्होंने कुछ पूछने से पहले ही इशारे से मुझे, श्रद्धा दीदी के वार्ड तक पहुंचा दिया और फिर, सीढ़ी से तेज़ तेज़ कदमों से नीचे उतर गये जैसे किसी बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गये हों। मैं, वहां, आ तो गयी थी लेकिन जिसे मैं जानती नहीं थी और जानने का प्रयास भी कभी नहीं किया था उनसे मैं क्या पूछती, कैसे पूछती? श्रद्धा दीदी मेरे सामने लेटी हुई थीं। स्टूल पर ढेर सारी दवाएं रखी थीं। वहीं ऑक्सीजन का सिलिंडर। ग्लूकोज़ की उल्टी लटकी बोतल। नर्स आयी, उसने बोतल को देखा। शायद उसमें कुछ था और फिर वापस लौट गयी।

“बिन्दू तू आयी है, सबने तो मुझे छोड़ ही दिया है। मैं बुरी औरत नहीं हूं। बता मैं क्या करती?”

उनका हताश स्वर कमरे में दवाई की गंध के साथ ठहर गया था। उस दिन, उन्होंने अपनी ज़िंदगी का जो खुलासा किया वो याद करके आज भी आंखें भर भर आती हैं।

“बिंदु, बता मैं क्या करती? अगर आनंद सहारा न देते तो मैं भीख मांगती?”

आवाज़ में कड़वाहट घुल गयी थी। उनका एक हाथ मेरे घुटने पर आ गया था।

“मैं जानती हूं। जैसा जीवन मैं जी रही थी उसमें, यह तो होना ही था।” उनकी ज़ुबान बुरी तरह लड़खड़ाने लगी थी। कमज़ोर स्वर फिर से सुनाई दिया,

“पति पत्नी का संबंध मान्यता, आदर और आपसी समझ पर आधारित होना चाहिए क्योंकि, दोनों ही एक दूसरे के पूरक होते हैं। सदाचार से पूर्ण,निष्ठा से गृहस्थ धर्म का पालन ही…एक दूसरे का कर्तव्य है। और एक दूसरे की समस्या को समझकर चलना ही गृहस्थ जीवन का उद्देश्य है। लेकिन मैं, एक ऐसी लाचार और बदनसीब पत्नी थी जो प्रतिदिन शराबी पति से प्रताड़ित होती थी, ज़ुल्म सहती थी फिर भी पति को परमेश्वर ही मानती आयी थी। शराबी राकेश को लगता जैसे गाली देना, और मार पीट करना उनका अधिकार है। कर्तव्य क्या है ये तो कभी जानने की कोशिश ही नहीं की उन्होंने।

अक्सर गरीब और अनपढ़ परिवारों में ऐसा होता है लेकिन राकेश तो पढ़े लिखे इंसान थे। आई सी आई से डिप्लोमा किया था उन्होंने। कम से कम एक बार समझने की कोशिश तो करते कि।शराब शरीर को ही नहीं ,पूरे परिवार को तबाह कर देती है। न कभी पति धर्म निभाया न ही पिता का धर्म निभाया। मेरे ज़ेवर बिक गये, बैंक बैलेंस शून्य हो गया…दाने दाने को मोहताज हो गये हम। आनंद ने दो चार ट्यूशन दिलवा दीं लेकिन उस आमदनी से क्या घर चल सकता था? अगर आनंद सहारा न देते तो मुझे भीख मांगनी पड़ती। मेरी मासूम अनन्या की ज़िंदगी अंधेरे से घिर जाती”

मैं उनकी बातें सुन रही थी… हर शब्द पकड़ने की कोशिश कर रही थी। उनका कांपता स्वर फिर सुनाई दिया,

“बिंदु, मुसीबत में कोई तुम्हारा सहारा बनेगा, तो वो तुमसे कुछ अपेक्षा भी तो रखेगा न। मैं भी क्या करती। आनंद की अपेक्षाएं अगर मुझ से थीं तो।“

उस दिन मैंने श्रद्धा दीदी की आंखों में फुफकारता सागर भी देखा और उनके सफ़ेद काले बालों से झड़ता रंगहीन वक्त भी देखा। ऐसा वक्त जिसने उन्हें तोड़ दिया था, उनकी गृहस्थी को तहस नहस कर दिया था।

श्रद्धा दीदी को देखने कोई नहीं आया, उनकी बात को सुनने के लिए भी मेरे अतिरिक्त कोई नहीं आया था। उनके पति भी नहीं, आनंद भी नहीं। ऐसा लग रहा था जैसे उस दिन दीदी, वो सब कुछ कहने की जल्दी में थीं। लेकिन कहतीं किससे? मैं जो उनके लिए अपरिचित थी बस उसी के सामने वो बरसों पुरानी आत्मीयता से खुलती चली गयीं थीं।

“ बिंदु। मैं और नहीं लड़ सकती थी अपने आप से। मैंने नींद की गोलियां खा ली हैं” वो सिसक रही थीं।” मेरे बाद मेरी अन्नू का क्या होगा। उसे बचा लो कोई। बहुत छोटी है वो। आनंद मेरी अनु को मांग रहा है। कहता है वो उसे संभाल लेगा। पर कैसे दे दूं उसे अपनी बच्ची”

वो तड़प उठी थीं ऐसे जैसे, जो कुछ उनकी मुट्ठी में था उसे वो अपनी मुट्ठी में ही बंद रखना चाह रही थीं। वो निष्पाप थीं। उनके अंदर की मलिनता बरसात के गंदे पानी की तरह बह चुकी थी। उन्होंने कुछ भी नहीं किया था जिसकी वजह से सबकी आंखों में उनके प्रति हिक़ारत के भाव थे। फिर भी उनको हम सबने, एक बुरी औरत मान लिया था।

श्रद्धा दीदी चली गयीं। सब कुछ समाप्त हो जाने के बाद राकेश कमरे में आये। आनंद भी आया। उसकी मज़बूत हथेलियों में नन्ही सी अनु दुबकी हुई थी। मन हुआ था झपटकर अनु को उन चौड़े पार्श्विक हाथों से उसे मुक्त करा लूं लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पायी थी। उस परिवार में मेरा वजूद ही क्या था? मैं बहुत कमज़ोर थी। केवल सोचने वाली बिंदु। चाहता तो राकेश अपनी बच्ची को उस खलनायक की गिरफ़्त से छुड़ा सकता था। एक पिता की हैसियत से। श्रद्धा दीदी के पति की हैसियत से। लेकिन वो एक कायर इंसान था। भारी कदमों से मैं घर लौट आयी थी।

आज मेरे सामने अनन्या के विवाह का निमंत्रण पत्र है। सोच रही हूं अगर मृत्यु के बाद भी व्यक्ति अगर देख सकता है तो देख ले,श्रद्धा दीदी की अनन्या अपनी गृहस्थी बसाने जा रही है। आनंद ने खलनायक का नहीं नायक का रोल अदा किया है। खलनायक तो असल में राकेश था।

-पुष्पा भाटिया

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