नई दिल्ली6 घंटे पहले
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मैं रीना रामटेके छत्तीसगढ़ की रहने वाली हूं। वन अधिकारों को लेकर आदिवासी समुदाय के बीच काम करती हूं और उनके बीच जागरूकता फैलाती हूं।
ग्रामीण महिलाओं के रोजी-रोजगार के लिए छोटी समितियां बनाना, उन्हें आजीविका के लिए ट्रेनिंग देना, अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनाना मेरे काम का हिस्सा है।
पिछले 23 वर्षों से अपने मिशन में जुटी हूं। इस दौरान कई चुनौतियां भी झेली हैं।
दैनिक भास्कर के ‘ये मैं हूं’ में आज मेरे जीवन के बारे मे जानें।
गरीबी में पली-बढ़ी, पैरों में टूटी चप्पल ही रहती
मेरा जन्म रायपुर से 90 किमी दूर गरियाबंद में हुआ। मां-पिता और दो भाइयों से भरा-पूरा परिवार रहा।
ढाई-तीन एकड़ की खेती थी जिससे कुछ उपज होती लेकिन यह परिवार चलाने के लिए काफी नहीं था। पापा ने एक छोटा होटल खोला जिसमें नूडल्स, पास्ता वगैरह बिकते। लेकिन होटल नहीं चला।
तब उन्होंने बांस के बने झाड़ू, सूप, सुतली जैसी चीजें बाजार में बेचना शुरू किया।
लेकिन ये कच्चा धंधा है, थोड़ी बहुत ही कमाई हो पाती। इन पैसों से घर की बेसिक जरूरतें ही पूरी होतीं।
टूटी चप्पलें भी हम जोड़-तोड़ कर किसी तरह पहनते। कोई पर्व त्योहार आता तो घूमने-फिरने, नए कपड़े पहनने की इच्छा को मन में ही दबा लेती। कभी पेरेंट्स को नहीं जताती कि मुझे क्या चाहिए।
गांव के बच्चों के साथ रीना रामटेके।
9 सालों तक परिवार का सामाजिक बहिष्कार हुआ, कोई बच्चा साथ नहीं खेलता था
मेरी बड़ी दादी की कोई संतान नहीं थी। उन्होंने बहुत पहले समाज को कह दिया था कि मरने के बाद अपनी सारी जमीन समाज को दे देंगी।
बड़ी दादी हमारे परिवार के साथ रहतीं। दादी बुजुर्ग हुईं तो उन्होंने समाज को जमीन दान देने से मना कर दिया। इस पर पूरे समाज ने हमारे परिवार का बहिष्कार कर दिया।
तब मैं बहुत छोटी थी। बहिष्कार की समझ थी। लेकिन तब मोहल्ले का कोई बच्चा हमारे साथ नहीं खेलता था। कोई व्यक्ति हमारे घर भी नहीं आता-जाता।
दुकानदार सामान तक नहीं देते थे। 9 वर्षों तक बहिष्कार झेलना पड़ा। इसके कारण परिवार ने बहुत तकलीफें उठाईं। मेरी पढ़ाई भी डिस्टर्ब हुई। मैं आठवीं में फेल हो गई।
सिलाई सीखने के दौरान एनजीओ में आई, खुद के कमाए पैसों से पढ़ाई पूरी की
आगे पढ़ पाऊंगी या नहीं, कहना मुश्किल था। इसलिए मैंने सिलाई सेंटर जॉइन किया ताकि कुछ नहीं तो कपड़े सीलकर परिवार का सपोर्ट कर सकूंगी।
सिलाई सीखने के दौरान ही एक एनजीओ के बारे में पता चला। एनजीओ का जो प्रोजेक्ट चल रहा था, उसके लिए मेरी पढ़ाई पर्याप्त नहीं थी। लेकिन उन्होंने मुझे मौका दिया।
मैं काम करने लगी। जब पैसे आने लगे तो मैंने अपनी रुकी हुई पढ़ाई फिर शुरू की। खुद के कमाए पैसों से ही 12वीं तक की पढ़ाई पूरी की।
बाद में स्थिति थोड़ी और सुधरी। गांव-समुदाय के वीडियो बनाकर एनजीओ को भेजती। वे इन वीडियो को पब्लिश करते। इसके बदले 3,000 रुपए मिलते।
आदिवासी समुदाय के लोगों के बीच जागरुकता फैलाती रीना। (क्रम में सबसे बाएं)
महार जाति की होने की वजह से मकान मालिक किचन में जाने से रोकते
मैं महार जाति से हूं। गांव में रहते हुए कभी छुआछूत के बारे में नहीं जाना था। लेकिन जब बाहर काम करना शुरू किया तो इस छुआछूत से भी पाला पड़ा। किराये के घर में रहती। कई बार मकान मालिक के यहां बातचीत करते-करते उनके किचन में भी चली जाती।
जब उन्हें पता चल गया कि मैं महार जाति की हूं तो उन्होंने कहा कि किचन में उनके देवी-देवता रहते हैं इसलिए मैं उनके किचन में पैर न रखूं।
मुझे अजीब लगा, मैंने किचन में जाना बंद कर दिया। उनकी बहू ने बताया कि
सास-ससुर पुराने ख्यालात के हैं। सीधे नहीं बोल सकते थे इसलिए ये बहाना किया है। तब पहली बार छुआछूत जैसी सोच से मेरा सामना हुआ।
शादी नहीं की, आदिवासी समुदाय के साथ ही जीवन बिताना लक्ष्य
सभी तरह के कानूनी अधिकार होने के बावजूद समाज में छुआछूत जैसी चीजें आज भी हैं। इसलिए मैंने लोगों में जागरुकता लाने का काम करना शुरू किया।
खुद शादी नहीं करने का फैसला लिया। अब आदिवासी समुदाय ही मेरा परिवार है और उनके साथ ही जीवन बिताना है।
आदिवासी समुदाय जल्दी भरोसा नहीं करता, वर्षों काम करने पर विश्वास बनता है
आदिवासी समुदाय जल, जंगल, जमीन से जुड़ा है। वो अपनी दुनिया में बाहरी हस्तक्षेप पसंद नहीं करते। ऐसे में उन्हें संगठित करने में पसीना निकल जाता है।
आप बाहर से आए हैं और काम करना चाहते हैं तो आदिवासी समुदाय एकाएक भरोसा नहीं करता। जब मैंने काम शुरू किया तो भरोसा जीतना सबसे बड़ा चैलेंज रहा।
आदिवासियों में ये गलत सोच भी रही कि हम एनजीओ से हैं, पैसा कमाने-खाने वाले लोग हैं जो उनका फायदा उठाएंगे। लेकिन अपने काम से इन गलतफहमियों को दूर किया।
लैंगिग भेदभाव से बच्चियों की पढ़ाई छूट जाती
लैंगिग भेदभाव हर जगह है और अलग-अलग रूप में देखने को मिलता है। गांव में लड़कियां प्राइमरी स्कूल तक ठीक-ठाक पढ़ती हैं लेकिन जब ऊपरी कक्षा में पहुंचती हैं तो पढ़ाई छूटने लगती है। स्कूल घर से दूर होता है।
परिवार वाले ही मना कर देते हैं। लड़कियों को लड़कों जैसी फ्रीडम भी नहीं मिल पाती।
मां-बाप खेती करते हैं जबकि लड़कियां अपने से छोटे बच्चों को घर में संभालती हैं। इसलिए लड़कियां नहीं पढ़ पातीं। जबकि लड़कों पर कोई बोझ नहीं होता।
इस लैंगिक भेदभाव को दूर करने के लिए महिलाओं की समितियों में बात करती हूं। उन्हें लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई का महत्व समझाती हूं।
जंगलों से रिश्ता बना, बुजुर्गों और महिलाओं से सीखती
मैं गौरेला पेंड्रा मारवाही जिले में काम कर रही हूं। बिलासपुर से अलग होकर 2020 में इसे अलग जिला बनाया गया था। इस इलाके में आदिवासियों की संख्या अधिक है।
उनके साथ काम करते हुए जंगल के साथ भी रिश्ता बन गया। बुजुर्गों और महिलाओं से काफी कुछ सीखने को मिला। उनके साथ बैठकर जंगल के बारे में बातें करती हूं।
‘बिहान’ योजना में लोगों की आजीविका के लिए कई तरह की ट्रेनिंग दी जाती है। महिलाओं के सेल्फ हेल्प ग्रुप को मछली पालन के साथ-साथ बत्तख पालन का प्रशिक्षण दिया जाता है। कई अन्य एक्टिविटीज भी की जाती है।
मैं इस जीवन से खुश हूं। सबसे बड़ी खुशी इस बात की है कि मैं जिस समाज से निकल कर आई हूं वहां से आगे बढ़ रही हूं। शिक्षा ही मेरी लाठी बनकर साथ दे रही है।
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