Parents giving drugs to children | मां-बाप बच्चों को देते ड्रग्स: भूख-ठंड से बच्चों को बचाने का ढंग; बच्चे, बच्चियों को वेश्यावृत्ति, जेबकतरा, भिखारी बनने से बचाना लक्ष्य

2 घंटे पहलेलेखक: मरजिया जाफर

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हर इंसान के अंदर एक जुनून पलता है, लेकिन उस जुनून को अंजाम की हद तक कुछ ही लोग पहुंचा पाते हैं। उन्हीं में से एक नाम है राशि आनंद का, जो दिल्ली की सड़कों पर दर-बदर भटक रहे बच्चों का सहारा बनीं। सड़कों पर रह रहे बच्चे मजबूरन जेब काटते, भीख मांगते और लड़कियां वेश्यावृत्ति में जाने अंजाने चली जाती हैं। उसी वंचित समुदाय के लोगों की मसीहा राशि आनंद एक एनजीओ चलाती हैं जिसका नाम ‘लक्ष्यम’ है। राशि गरीबों की जिंदगी संवारने का काम कर रही हैं। उन्हें ये जज्बा उनकी मां से मिला है। बचपन से ही उन्होंने अपनी मां को दूसरों की सेवा करते देखा। राशि ने बहुत करीब से लोगों का दुख दर्द देखा और उसे महसूस किया है। राशि समाज के हर तबकों के बीच की असामनता को मिटाने के लिए सेवा करने का रास्ता चुना।

हर इंसान के अंदर एक जुनून पलता है, लेकिन उस जुनून को अंजाम की हद तक कुछ ही लोग पहुंचा पाते हैं। उन्हीं में से एक नाम है राशि आनंद का, जो दिल्ली की सड़कों पर दर-बदर भटक रहे बच्चों का सहारा बनीं। सड़कों पर रह रहे बच्चे मजबूरन जेब काटते, भीख मांगते और लड़कियां वेश्यावृत्ति में जाने अंजाने चली जाती हैं। उसी वंचित समुदाय के लोगों की मसीहा राशि आनंद एक एनजीओ चलाती हैं जिसका नाम ‘लक्ष्यम’ है। राशि गरीबों की जिंदगी संवारने का काम कर रही हैं। उन्हें ये जज्बा उनकी मां से मिला है। बचपन से ही उन्होंने अपनी मां को दूसरों की सेवा करते देखा। राशि ने बहुत करीब से लोगों का दुख दर्द देखा और उसे महसूस किया है। राशि समाज के हर तबकों के बीच की असामनता को मिटाने के लिए सेवा करने का रास्ता चुना।

दैनिक भास्कर की ‘ये मैं हूं’ सीरीज में जानिए राशि आनंद के जज्बे की कहानी…

इन बच्चों के लिए सिर्फ एजुकेशन ही नहीं बल्कि जिंदगी जीने का सलिका भी आना चाहिए।

इन बच्चों के लिए सिर्फ एजुकेशन ही नहीं बल्कि जिंदगी जीने का सलिका भी आना चाहिए।

मैं राशि आनंद, रांची से ताल्लुक रखती हूं। 21 साल की कम उम्र में ही झुग्गी झोपड़ी के बच्चों के लिए काम करना शुरू कर दिया था। मां को मैंने हमेशा से ही लोगों की सेवा करते देखा। मां भी ‘लक्ष्य’ नाम से एक एनजीओ चलाती हैं। मेरी मां ही मेरी आदर्श और मार्गदर्शक हैं।

दर-ब-दर भटकते बच्चे

मैं ऑटो से कॉलेज जाने के दौरान रास्ते में पड़ने वाली लाल बत्तियों पर उलझे हुए बालों वाले मैले-कुचैले बच्चों को रुकी हुई गाड़ियों के इर्द-गिर्द चक्कर काटते हुए देखती। बत्ती के हरे हो जाने पर वही बच्चे आसपास प्लास्टिक की बोतलों से खेलने में जुट जाते। बच्चों को रोजाना अपना समय बेकार करते हुए देखती। एक दिन मैंने लोगों के घरों से पुराने खिलौने इकट्ठा करके उन बच्चों के बीच बांटने का फैसला किया। वक्त गुजरता गया मेरी दिलचस्पी इन कामों में बढ़ती गई।

शुरुआत में तो बिल्कुल अकेले ही काम किया। लोगों को मुझ पर शायद भरोसा नहीं था कि मैं कर पाऊंगी। जब मैं दिल्ली की आरके पुरम बस्ती में लोगों की मदद करने जाती तो क्या देखती कि लोग पत्ते खेल रहे हैं। अजीब निगाहों से देख रहे हैं। आती-जाती महिलाओं पर कमेंट कर रहे हैं।

मैं बच्चों अलग अलग स्किल भी सिखाना चाहती हूं ताकि वो आत्मनिर्भर बने।

मैं बच्चों अलग अलग स्किल भी सिखाना चाहती हूं ताकि वो आत्मनिर्भर बने।

मां बाप खुद अपने बच्चों को ड्रग्स देते

गरीबी तले दबी इस बस्ती में मैंने एक और भयावह चीज देखी। मां बाप खुद अपने बच्चों को ड्रग्स की लत लगा रहे थे। ड्रग्स की डोज इसलिए देते कि नशे की हालत में बच्चे को भूख भी नहीं लगती और सर्दी भी महसूस नहीं होती। भूख और ठंड से कांपते बच्चे अपने मां-बाप से बार बार खाना नहीं मांगते और ठंड को लेकर परेशान नहीं होते। गरीबी का इस कदर दर्दनाक चेहरा मुझे दहला गया।

पढ़ाने की उम्र में 100 रूपए मांगे

मैंने जब उन लोगों से बात की कि मैं इन बच्चों को पढ़ाना चाहती हूं तो उन्होंने ने उल्टा मुझसे बच्चों को पढ़ाने के एवज में पैसे मांग लिए। उस वक्त मुझे कुछ समझ नहीं आया। बच्चों के मां बाप का मानना था कि अगर बच्चा पढ़ेगा तो भीख नहीं मांग पाएगा। भीख नहीं मांग पाने की वजह से रात को खाना कहां से आएगा? हम बड़ों को तो कोई काम देता नहीं है यहीं बच्चें जो कुछ मांगकर लाते है उसी से हमारा गुजारा चलता है। इसलिए उन लोगों ने बच्चों को पढ़ाने के बदले मुझसे 100 रूपए मांगे।बेहतर दुनिया की ओर कदम मैंने उस बस्ती में काम करना शुरू किया। धीरे धीरे समझ में आने लगा कि इन लोगों से कैसे बात करनी है। मैंने उस इलाके में करीब 7 साल तक काम करके बहुत कुछ सीखा। दूसरे एरिया की तरफ बढ़ी जहां से बच्चे भीख मांगने आते हैं।

आरके पुरम के बाद वसंत कुंज की एक बस्ती को काम करने के लिए चुना। हम 7 से 14 साल के बच्चों पर फोकस करते हैं।

इसके लिए मैंने ‘लक्ष्यम’ नाम की संस्था की शुरुआत की। लक्ष्य यानी मंजिल। मेरे लिए यह शाश्वत संघर्ष और बेहतर दुनिया की ओर कदम बढ़ाने की कोशिश है। मैंने समाज के सबसे निचले तबके में रहने वाले लोगों के सामने आने वाली चुनौतियों, परेशानियों के बारे में जानने के लिए दिल्ली की कई बस्तियों का सर्वे भी किया।

मैंने बहुत करीब से लोगों का दुख दर्द देखा और उसे महसूस किया है।

मैंने बहुत करीब से लोगों का दुख दर्द देखा और उसे महसूस किया है।

‘बटरफ्लाई’ तितली के जरिए आजादी

मैने फैसला किया की इन बच्चों को सिर्फ पढ़ना ही नहीं बल्कि इन बच्चों को सेहत और सफाई के प्रति जागरूक करने का काम भी करना होगा। इसी के साथ मैंने बटरफ्लाई कार्यक्रम की शुरूआत की। ‘बटरफ्लाई’ तितली के पंखों के जरिए आजादी के बारे में बच्चों को समझाना है, ताकि ये मासूम बच्चे जीने की आजादी और शिक्षा के बीच का रिश्ता समझ सकें। मैं हमेशा ‘शिक्षा’ के जरिए जिंदगी में कुछ बेहतर करने के पहलू को समझने की कोशिश की है। शिक्षा का मतलब सिर्फ पढ़ाई नहीं बल्कि सेहत, पानी, सफाई और बेहतर जीवन से रूबरू होना है।

जिंदगी जीने का सलीका सिखाती हूं

बच्चों के लिए पेंटिंग, म्यूजिक, डांस, एक्टिंग, योग, जैसी कई एक्टिविटी भी कराती हूं। बच्चा जो कुछ भी सीखना चाहता है वह ट्रेनिंग लेकर सीख सकता है। लक्ष्यम ने कुछ बस्तियों में अपने स्कूल शुरू किए हैं जिनमें इन बच्चों को शिक्षा की कमी की वजह से पैदा हुए फर्क को कम करने का ज्ञान दिया जा रहा है। वर्कशॉप और क्लासेज के जरिए बच्चों और उनके परिजनों को जीवन जीने का ढंग बताते हैं।

टॉय लाइब्रेरी के जरिए जागरूकता

लक्ष्यम ने साल 2004 में दिल्ली में देश की पहली टॉय लाइब्रेरी की स्थापना की। खिलौने हर बच्चे के बचपन की नींव का अहम हिस्सा हैं और कुछ बच्चे इनकी झलक तक से महरूम रहते हैं। इसी को देखते हुए मैंने लक्ष्यम के जरिए इस दिशा में अपना पहला कदम बढ़ाया और टॉय लाइब्रेरी की शुरुआत की जिसकी कामयाबी से मैं बहुत खुश हूं।

महिलाओं को मजबूत बनाने के लिए ‘रूह’ कार्यक्रम चलाया

लक्ष्यम का यह महिला सशक्तीकरण कार्यक्रम सेहत और सफाई के लिए वर्कशॉप के जरिये महिलाओं को मार्केटिंग स्किल सिखाता है। मेरा मकसद बेहद पिछड़ी हुई मानसिकता वाले समाज में महिलाएं अपने हक की रक्षा के लिए जागरूक बनाना है।मेरे एनजीओ की नई शुरुआत ‘अभ्यास’ है

हम ‘अभ्यास’ कार्यक्रम के जरिए बेकार और पुराने कागजों की रीसाइक्लिंग करने के साथ-साथ लक्ष्यम के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को मुफ्त में कॉपी बांटते हैं। इन सभी कार्यक्रमों और अभियानों का सामूहिक असर बहुत अच्छा और चौंकाने वाले रहा है। अब तक लक्ष्यम के जरिए देशभर में करीब 21 हजार लोगों की जिंदगी सुधारने में मदद मिली है।

मैं राशि आनंद, रांची से ताल्लुक रखती हूं। 21 साल की कम उम्र में ही झुग्गी झोपड़ी के बच्चों के लिए काम करना शुरू कर दिया था। मां को मैंने हमेशा से ही लोगों की सेवा करते देखा। मां भी ‘लक्ष्य’ नाम से एक एनजीओ चलाती हैं। मेरी मां ही मेरी आदर्श और मार्गदर्शक हैं।

दर-ब-दर भटकते बच्चे

मैं ऑटो से कॉलेज जाने के दौरान रास्ते में पड़ने वाली लाल बत्तियों पर उलझे हुए बालों वाले मैले-कुचैले बच्चों को रुकी हुई गाड़ियों के इर्द-गिर्द चक्कर काटते हुए देखती। बत्ती के हरे हो जाने पर वही बच्चे आसपास प्लास्टिक की बोतलों से खेलने में जुट जाते। बच्चों को रोजाना अपना समय बेकार करते हुए देखती। एक दिन मैंने लोगों के घरों से पुराने खिलौने इकट्ठा करके उन बच्चों के बीच बांटने का फैसला किया। वक्त गुजरता गया मेरी दिलचस्पी इन कामों में बढ़ती गई।

शुरुआत में तो बिल्कुल अकेले ही काम किया। लोगों को मुझ पर शायद भरोसा नहीं था कि मैं कर पाऊंगी। जब मैं दिल्ली की आरके पुरम बस्ती में लोगों की मदद करने जाती तो क्या देखती कि लोग पत्ते खेल रहे हैं। अजीब निगाहों से देख रहे हैं। आती-जाती महिलाओं पर कमेंट कर रहे हैं।

मां बाप खुद अपने बच्चों को ड्रग्स देते

गरीबी तले दबी इस बस्ती में मैंने एक और भयावह चीज देखी। मां बाप खुद अपने बच्चों को ड्रग्स की लत लगा रहे थे। ड्रग्स की डोज इसलिए देते कि नशे की हालत में बच्चे को भूख भी नहीं लगती और सर्दी भी महसूस नहीं होती। भूख और ठंड से कांपते बच्चे अपने मां-बाप से बार बार खाना नहीं मांगते और ठंड को लेकर परेशान नहीं होते। गरीबी का इस कदर दर्दनाक चेहरा मुझे दहला गया।

पढ़ाने की उम्र में 100 रूपए मांगे

मैंने जब उन लोगों से बात की कि मैं इन बच्चों को पढ़ाना चाहती हूं तो उन्होंने ने उल्टा मुझसे बच्चों को पढ़ाने के एवज में पैसे मांग लिए। उस वक्त मुझे कुछ समझ नहीं आया। बच्चों के मां बाप का मानना था कि अगर बच्चा पढ़ेगा तो भीख नहीं मांग पाएगा। भीख नहीं मांग पाने की वजह से रात को खाना कहां से आएगा? हम बड़ों को तो कोई काम देता नहीं है यहीं बच्चें जो कुछ मांगकर लाते है उसी से हमारा गुजारा चलता है। इसलिए उन लोगों ने बच्चों को पढ़ाने के बदले मुझसे 100 रूपए मांगे।

बेहतर दुनिया की ओर कदममैंने उस बस्ती में काम करना शुरू किया। धीरे धीरे समझ में आने लगा कि इन लोगों से कैसे बात करनी है। मैंने उस इलाके में करीब 7 साल तक काम करके बहुत कुछ सीखा। दूसरे एरिया की तरफ बढ़ी जहां से बच्चे भीख मांगने आते हैं। आरके पुरम के बाद वसंत कुंज की एक बस्ती को काम करने के लिए चुना। हम 7 से 14 साल के बच्चों पर फोकस करते हैं।

इसके लिए मैंने ‘लक्ष्यम’ नाम की संस्था की शुरुआत की। लक्ष्य यानी मंजिल। मेरे लिए यह शाश्वत संघर्ष और बेहतर दुनिया की ओर कदम बढ़ाने की कोशिश है। मैंने समाज के सबसे निचले तबके में रहने वाले लोगों के सामने आने वाली चुनौतियों, परेशानियों के बारे में जानने के लिए दिल्ली की कई बस्तियों का सर्वे भी किया।

‘बटरफ्लाई’ तितली के जरिए आजादी

मैने फैसला किया की इन बच्चों को सिर्फ पढ़ना ही नहीं बल्कि इन बच्चों को सेहत और सफाई के प्रति जागरूक करने का काम भी करना होगा। इसी के साथ मैंने बटरफ्लाई कार्यक्रम की शुरूआत की। ‘बटरफ्लाई’ तितली के पंखों के जरिए आजादी के बारे में बच्चों को समझाना है, ताकि ये मासूम बच्चे जीने की आजादी और शिक्षा के बीच का रिश्ता समझ सकें। मैं हमेशा ‘शिक्षा’ के जरिए जिंदगी में कुछ बेहतर करने के पहलू को समझने की कोशिश की है। शिक्षा का मतलब सिर्फ पढ़ाई नहीं बल्कि सेहत, पानी, सफाई और बेहतर जीवन से रूबरू होना है।

जिंदगी जीने का सलीका सिखाती हूं

बच्चों के लिए पेंटिंग, म्यूजिक, डांस, एक्टिंग, योग, जैसी कई एक्टिविटी भी कराती हूं। बच्चा जो कुछ भी सीखना चाहता है वह ट्रेनिंग लेकर सीख सकता है। लक्ष्यम ने कुछ बस्तियों में अपने स्कूल शुरू किए हैं जिनमें इन बच्चों को शिक्षा की कमी की वजह से पैदा हुए फर्क को कम करने का ज्ञान दिया जा रहा है। वर्कशॉप और क्लासेज के जरिए बच्चों और उनके परिजनों को जीवन जीने का ढंग बताते हैं।

टॉय लाइब्रेरी के जरिए जागरूकता

लक्ष्यम ने साल 2004 में दिल्ली में देश की पहली टॉय लाइब्रेरी की स्थापना की। खिलौने हर बच्चे के बचपन की नींव का अहम हिस्सा हैं और कुछ बच्चे इनकी झलक तक से महरूम रहते हैं। इसी को देखते हुए मैंने लक्ष्यम के जरिए इस दिशा में अपना पहला कदम बढ़ाया और टॉय लाइब्रेरी की शुरुआत की जिसकी कामयाबी से मैं बहुत खुश हूं।

महिलाओं को मजबूत बनाने के लिए ‘रूह’ कार्यक्रम चलाया

लक्ष्यम का यह महिला सशक्तीकरण कार्यक्रम सेहत और सफाई के लिए वर्कशॉप के जरिये महिलाओं को मार्केटिंग स्किल सिखाता है। मेरा मकसद बेहद पिछड़ी हुई मानसिकता वाले समाज में महिलाएं अपने हक की रक्षा के लिए जागरूक बनाना है।

मेरे एनजीओ की नई शुरुआत ‘अभ्यास’ है

हम ‘अभ्यास’ कार्यक्रम के जरिए बेकार और पुराने कागजों की रीसाइक्लिंग करने के साथ-साथ लक्ष्यम के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को मुफ्त में कॉपी बांटते हैं। इन सभी कार्यक्रमों और अभियानों का सामूहिक असर बहुत अच्छा और चौंकाने वाले रहा है। अब तक लक्ष्यम के जरिए देशभर में करीब 21 हजार लोगों की जिंदगी सुधारने में मदद मिली है।

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